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नींव का पत्थर
४. कर्त्ताशक्ति :- इस शक्ति से होने रूप स्वतः सिद्ध भाव का यह द्रव्य भावक होता है।
५. करण शक्ति :- इससे यह द्रव्य अपने प्राप्यमाण अर्थात् प्राप्त होने योग्य कर्म की सिद्धि में स्वतः साधकतम होता है।
६. सम्प्रदान शक्ति :- इससे अर्थात् प्राप्त होनेवाले कर्म स्वयं के लिए समर्पित होते हैं।
७. अपादान शक्ति :- इससे उत्पाद-व्यय भाव के उपाय होने पर भी द्रव्य सदा अन्वय रूप से ध्रुव बना रहता है।
८. अधिकरण शक्ति :- इससे भव्यमान ( होने योग्य) समस्त भावों का आधार स्वयं द्रव्य होता है।
९. सम्बन्ध शक्ति :- स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी सम्बन्ध शक्ति अर्थात् यह शक्ति अपने से भिन्न अन्य किसी द्रव्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती ।
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इसप्रकार वस्तु के स्वतंत्र षट् कारकों की सिद्धि में उपर्युक्त शक्तियाँ साधक हैं। इन्हीं से प्रत्येक द्रव्य की सभी पर्यायें कारकान्तर निर्पेक्ष सिद्ध होती हैं।
इस प्रकार महावीर जयन्ती पर आयोजित, विविध कार्यक्रमों के अन्तर्गत सांस्कृतिक संगोष्ठी में अध्यापक और छात्रों द्वारा प्रश्नोत्तर एवं संवादशैली में वस्तु स्वातंत्र्य सिद्धान्त के पोषक षट्कारक विषय को प्रस्तुत किया गया, जिसे श्रोताओं ने ध्यान से सुना, समझा और करतलध्वनि से प्रसन्नता प्रगट करते हुए अनुमोदना की। सभी सक्रिय भाग लेने वाले श्रोताओं एवं वक्ताओं को सरल, सफल, रोचक प्रस्तुति के प्रोत्साहन हेतु पुरस्कृत किया गया।
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राग-द्वेष की जड़ : पर कर्तृत्व की मान्यता
जो अन्य के सुख दुःख का कर्त्ता स्वयं को मानते । वे वस्तु के स्वातंत्र्य के, सिद्धान्त को नहीं जानते ।। पोषण किया करते निरन्तर क्रोध मान कषाय का। शोषण सदा होता रहा, सुख-शान्ति सहज स्वभाव का।।
महावीर जयन्ती पर आयोजित संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में प्रमुख वक्ता के रूप में बोलते हुए विराग ने अपना वक्तव्य अपने अनुभूत उदाहरण से प्रारंभ किया। उसने कहा- “देखो, हम सबने खासकर माँ ने पिताजी की बीमारी को ठीक करने के लिए क्या-क्या प्रयत्न नहीं किए, पर क्या कर पाये हम ? एलोपेथी, होम्योपेथी, नेचरोपेथी आदि सभी पेथियाँ छान मारी। आयुर्वेद, यूनानी, मालिस, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर, आसन, प्राणायाम आदि कुछ भी तो नहीं छोड़ा। सभी को आजमा - आजमा कर देखा; पर कहीं कोई सफलता नहीं मिली।
अन्त में वस्तु स्वातंत्र्य के सहारे और क्रमबद्धपर्याय के आलम्बन से अपनी आकुलता को कम करते हुए आर्तध्यान- रौद्रध्यान से बचने के लिए चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन, पंचपरमेष्ठियों का स्मरण और वैराग्यवर्द्धक वैराग्य भावना एवं बारह भावनाओं को हम भी पढ़ते रहे और कैसिटों के माध्यम से पिताजी को भी सुनाते रहे ।
पिताजी भी शेष जीवन में समाधि की साधना करते हुए कैसिटों के साथ स्वयं भी उन्हीं पाठों को गुन-गुनाते रहे। जब स्वस्थ होने का काल पका तो बाह्य निमित्त तीर्थंकर स्तवन और अंतरंग निमित्त रूप असाता कर्म प्रकृति साता में पलट गईं। उसी समय अन्तर्मुखी उग्र पुरुषार्थ के साथ भली होनहार से ऐसा बनाव बना कि - कल महावीर जयन्ती महोत्सव की मंगल बेला में उनका गला खुल गया। उनके कंठ से संगीतमय गाथाओं