Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ नींव का पत्थर आयोजन का प्रयोजन पहचानें परमार्थ स्वरूप एवं उनका कार्य-कारण सम्बन्ध समझना अति आवश्यक है। अविनाभाव वश जो बाह्य वस्तुओं में कारकपने का व्यवहार होता है, वे व्यवहार कारक हैं। जिनसेन का संकेत पाकर एक शिष्य ने प्रश्न किया - "गुरुदेव! कारक कहते किसे हैं?" जिनसेन ने उत्तर दिया - “जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध हो, जो क्रिया के प्रति किसी न किसी रूप में प्रयोजक हो, जो क्रिया निष्पत्ति में कार्यकारी हो, क्रिया का जनक हो; उसे कारक कहते हैं।" तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक हो, कार्यकारी हो, वही कारक हो सकता है अन्य नहीं; कारक छह होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । एक श्रोता ने पूछा - "गुरुदेव ! इन छहों सामान्य कारकों का स्वरूप क्या है और ये कार्य के निष्पन्न होने में किसप्रकार कार्यकारी हैं ?" जिनसेन ने कहा - "सर्वप्रथम षट्कारकों का सामान्य स्वरूप बताते ५. अपादान :- जिसमें से कर्म हो, वह ध्रुव वस्तु अपादान है। ६. अधिकरण :- क्रिया की आधारभूत वस्तु अधिकरण कारक है। अथवा जिसके आधार से कार्य हो, वह अधिकरण है। पंचास्तिकाय गाथा ६२ में कहा है कि - 'सर्व द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में ये छहों कारक एकसाथ वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्धदशा में या अशुद्ध दशा में स्वयं छहों कारकरूप निर्पेक्ष परिणमन करते हैं, दूसरे कारकों की अर्थात् निमित्त कारणों की अपेक्षा नहीं रखते।' प्रवचनसार गाथा १६ में भी कहा है - 'निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है, जिससे शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए पर सामग्री को खोजने की आकुलता से परतंत्र हुआ जाय । अपने कार्य के लिए पर की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। अतः पराधीनता से बस हो।' दूसरे शिष्य ने प्रश्न किया - गुरुदेव ! पंचास्तिकाय और प्रवचनसार के उपर्युक्त कथनों में टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने क्या अन्तर स्पष्ट किया है? जिनसेन ने उत्तर में कहा - "भाई ! तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है - सुनो ! यहाँ प्रवचनसार में प्रकरणवश आचार्यदेव ने केवलज्ञान रूप निर्मल पर्याय की प्राप्ति को पूर्ण स्वतंत्र-स्वाधीन सिद्ध किया है और पंचास्तिकाय में कर्म और जीव की विकारी पर्यायों को भी पूर्णतया स्वतंत्र, परनिर्पेक्ष सिद्ध करके स्वतंत्रता की उद्घोषणा करते हुए परकर्तृत्व का पूर्णतया निषेध किया है।" तीसरे शिष्य ने पूछा - "ये विकारी पर्यायें अहेतुक है या सहेतुक?" जिनसेन ने कहा - "भाई ! निश्चय से विकारी पर्यायें भी अहेतुक ही हैं; क्योंकि - प्रत्येक द्रव्य अपना परिणमन स्वतंत्र रूप से करता है। परन्तु विकारी पर्याय के समय निमित्त रूप हेतु का आश्रय अवश्य होता है, इसकारण व्यवहार से उसे सहेतुक भी कहा जाता है। १. कर्ताकारक :- जो स्वतंत्रता से स्वयं कार्यरूप परिणमित होता है तथा जो क्रिया व्यापार में स्वतंत्ररूप से कार्य का प्रयोजक हो, वह कर्ता कारक है। प्रत्येक द्रव्य अपने में स्वतंत्र व्यापक होने से अपने ही परिणाम का निश्चय से कर्ता है। २. कर्म कारक :- कर्ता जिस परिणाम (पर्याय) को प्राप्त करता है, वह परिणाम उसका कर्म है। ३. करण कारक:- क्रिया की सिद्धि में जो साधकतम होता है, वह करण कारक है। ४. सम्प्रदान :- कर्म परिणाम जिसे दिया जाय वह सम्प्रदान है। १. जिस परद्रव्य की उपस्थिति के बिना कार्य न हो। जैसे - घट कार्य में कुंभकार, चक्र, चीवर आदि। (47)

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