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नींव का पत्थर
अच्छी पड़ौसिने भी पुण्य से मिलती हैं
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ मात्र यह नहीं कहा गया है कि पर्यायें क्रम से होती हैं; अपितु यह भी कहा गया है कि वे नियमितक्रम में होती हैं। आशय यह है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में, जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थपूर्वक, जैसी होनी है; उस द्रव्य की, वह पर्याय, उसी काल में, उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थपूर्वक वैसी ही होती है, अन्यथा नहीं - यह नियम है।
जैसा कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि - "जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है। इसप्रकार निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो इसमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।"
इसी क्रम में प्राचीन हिन्दी कवियों और टीकाकारों के द्वारा सशक्त भाषा में जो पद्य व गद्य में विचार व्यक्त किए गए हैं, वे मूलतः द्रष्टव्य हैं।
भैया भगवतीदासजी कहते हैं - "जो-जो देखी वीतराग ने, सो-सो होसी वीरा रे। बिन देख्यो होसी नहिं क्यों ही, काहे होत अधीरा रे ।। समयो एक बढ़े नहिं घटसी, जो सुख-दुख की पीरा रे। तू क्यों सोच करै मन कूड़ो, होय वज्र ज्यों हीरा रे।।" कवि बुधजनजी ने बहुत ही सरल भाषा में क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा के बल पर स्वयं को निर्भय होने की घोषणा की है। वे लिखते हैं -
जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। णाद जिणेण णियदं जम्म वा अहव मरणं वा ।।३२१।। तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कादि वारेहूँ इंदो वा तह जिणिंदो वा ।।३२२ ।। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुट्ठिी ।।३२३ ।।
'जा करि जैसें जाहि समय में, जो होतव जा द्वार ।
सो बनिहै टरिहै कछु नाहीं, करि लीनों निरधार ।। हमको कछु भय ना रे! जान लियो संसार ।।'
उक्त प्रकरणों में प्रायः सर्वत्र ही सर्वज्ञ के ज्ञान को आधार मानकर भविष्य निश्चित है - ऐसा कहा गया है और उसके आधार पर अधीर नहीं होने का एवं निर्भय रहने का उपदेश दिया गया है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि 'क्रमबद्धपर्याय' की सिद्धि में सर्वज्ञता सबसे प्रबल हेतु हैं।
सर्वज्ञ को धर्म का मूल कहा गया है। जो व्यक्ति सर्वज्ञ भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह अपने आत्मा को भी जानता है और उसका मोह नियम से क्षय हो जाता है। अत: अरहंतों को जानना तो हमारी प्राथमिकता है। जब सर्वज्ञता हमारा लक्ष्य है, प्राप्तव्य है, आदर्श है, उसे प्राप्त करने के लिए सारा यत्न है तो फिर उसके सच्चे स्वरूप को तो समझना ही होगा। उसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है।
'सर्वज्ञता' और 'क्रमबद्धपर्याय' परस्परानुबद्ध हैं। एक का निर्णय व सच्ची समझ दूसरे के निर्णय के साथ जुड़ी हुई है। दोनों का निर्णय ही सर्वज्ञस्वभावी निज आत्मा के अनुभव के सम्मुख होने का साधन है। ___अम्मा ने पूछा - “यह तो ठीक है; परन्तु आये दिन दुर्घटनाओं में जो अकाल मृत्यु होती है, हत्याओं और आत्महत्याओं द्वारा जो बे-मौत मौतें होती हैं, उनका क्या होगा ? क्या ये सब भी क्रमबद्धपर्याय के अनुसार अपने-अपने स्व-समय में ही होती हैं ? ___ यदि ये सर्वज्ञ के जाने अनुसार पूर्व निर्धारित अपने समय में होती हैं तो हत्यारों को अपराधी क्यों माना जाता ? और उन्हें मौत तक का कठोर दण्ड क्यों दे दिया जाता है ?"
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१. प्रवचनसार, गाथा ८० २. कविवर बनारसीदास : नाटक समयसार