Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 37
________________ ७२ नींव का पत्थर रहते हैं। उदाहरणार्थ एक ऐसे दर्पण को लीजिए जिसमें अग्नि की ज्वाला प्रतिबिम्बित हो रही है। आप देखेंगे कि ज्वाला उष्ण है, परन्तु दर्पणगत प्रतिबिम्ब उष्ण नहीं होता। ठीक यही स्वभाव ज्ञान का है। ज्ञान में ज्ञेय प्रतिभासित तो होते हैं, पर ज्ञान-ज्ञेयों से तन्मय नहीं होता। ___ स्वामी समन्तभद्र ने केवलज्ञान की इस महिमा को जानकर सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए आप्तमीमांसा में लिखा है - परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादि काल से अन्तरित व्यक्ति और सुमेरु आदि क्षेत्र से दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं; क्योंकि वे अनुमान के विषय हैं। जो अनुमान के विषय होते हैं, वे किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते हैं।' सर्वज्ञ को त्रिकालज्ञ सिद्ध करते हुए प्रवचनसार गाथा ३९ में कहा है कि 'यदि वह केवलज्ञान त्रिकालज्ञ न हो तो उसे दिव्य कौन कहेगा ?" सर्वज्ञता से क्रमबद्ध पर्याय का अत्यन्त घना सम्बन्ध है अतः सर्वज्ञ का स्वरूप जान लेने पर क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझना सरल हो जाता है; इसलिए पहले सर्वज्ञ के स्वरूप का खुलासा किया है। अब क्रमबद्धपर्याय को समझाते हैं। यद्यपि 'क्रमबद्धपर्याय' स्वतः संचालित अनादि-निधन सुव्यवस्थित विश्व-व्यवस्था का एक ऐसा नाम है जो अनन्तानन्त सर्वज्ञ भगवन्तों के ज्ञान में तो अनादि से है ही, उनकी दिव्यवाणी से उद्भूत चारों अनुयोगों में भी है। इसे चारों ही अनुयोगों में सर्वत्र देखा, खोजा जा सकता है। बस, देखने के लिए निष्पक्ष शोधपरक दृष्टि चाहिए। प्रथमानुयोग में ६३ शलाका पुरुषों के भूत और भावी भवों की चर्चा से पुराण भरे पड़े हैं। १. जदि पच्चक्खमजादं पजायं पलयिदं च णाणस्स। ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेति ।।३९।। अच्छी पड़ौसिने भी पुण्य से मिलती हैं भगवान नेमिनाथ ने द्वारका जलने की घोषणा बारह वर्ष पूर्व कर दी थी। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया था कि किस निमित्त से, कैसे और कब - यह सब-कुछ घटित होगा। अनेक उपायों के बाद भी वह सब कुछ उसी रूप में घटित हुआ। भगवान आदिनाथ ने मारीचि के बारे में एक कोड़ा-कोड़ी सागर तक कब क्या घटित होने वाला है - सब-कुछ बता ही दिया था। क्या वह सब-कुछ पहिले से निश्चित नहीं था? असंख्य भव पहिले यह बता दिया गया था कि वे चौबीसवें तीर्थंकर होंगे। तब तो उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी नहीं हुआ था; क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति बंध जाने के बाद असंख्य भव नहीं हो सकते । तीर्थंकर प्रकृति को बांधने वाला तो उसी भव में, या तीसरे भव में, अवश्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अत: यह भी नहीं कहा जा सकता कि कर्म बंध जाने से उनका उतना भविष्य निश्चित हो गया था। यहाँ तक कि पूजन-पाठ में भी कदम-कदम पर क्रमबद्धपर्याय का स्वर मुखरित होता सुनाई देता है । "भामण्डल की धुति जगमगात, भवि देखत निजभव सात-सात।" तीर्थंकर भगवान के प्रभामण्डल में भव्यजीवों को अपने-अपने सातसात भव दिखाई देते हैं। उन सात भवों में तीन भूतकाल के, तीन भविष्य के एवं एक वर्तमान भव दिखाई देता है। इसके अनुसार प्रत्येक भव्य के कम से कम भविष्य के तीन भव तो निश्चित रहते ही हैं, अन्यथा वे दिखाई कैसे देते? __ "क्रमबद्धपर्याय से आशय यह है कि इस परिणमनशील जगत की परिणमन व्यवस्था क्रमनियमित है। जगत में जो भी परिणमन निरन्तर हो रहा है, वह सब एक निश्चित क्रम में व्यवस्थितरूप से हो रहा है। स्थूल दृष्टि से देखने पर जो परिणमन अव्यवस्थित दिखाई देता है, वह भी नाटक के मंच पर पड़ी गरीबी की प्रतीक टूटी खाट प्रदर्शन की भाँति सुव्यवस्थित व्यवस्था के अंतर्गत ही है।" (37)

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