Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ नींव का पत्थर अच्छी पड़ौसिने भी पुण्य से मिलती हैं ७७ सावधान करते हुए समताश्री ने बताया कि “वस्तुतः हत्यारा व्यक्ति जीव घात के कारण अपराधी नहीं है, बल्कि उसने जो हत्या का भाव किया, वह अपने उस हत्या के अभिप्राय के कारण अपराधी है और उसे उसी अभिप्राय की सजा मिलती है, जीवघात तो जब जिन कारणों से होना था, तदनुसार ही हुआ है। उदाहरणार्थ एक पानी से भरे उस घड़े को लें जो शिवपिण्डी पर लटक रहा है और उसमें १ लीटर पानी है। एक गणितज्ञ से पूछा कि यह घड़ा कब तक खाली होगा। उसने ५ मिनिट में टपके पानी को नाप कर गणित से बता दिया, २४ घंटे में। वही प्रश्न एक ज्योतिषी से पूछा - उसने कहा एक घंटे में । दोनों के उत्तरों को सुनकर जब तीसरे ज्ञानी पुरुष से पूछा कि कौन-सा उत्तर सही है कौन गलत ? तो उन्होंने कहा - अपनी-अपनी दृष्टिकोण से दोनों ही सही हैं। गणितज्ञ के अनुसार एकएक बूंद गिरती तो २४ घंटे ही लगते; परन्तु ज्योतिष के ज्ञान के अनुसार १ घंटे बाद एक लड़का आकर छेद बड़ा कर देगा और पूरा पानी एक घंटे में बह जायेगा । यह कथन भी सही है। ___ इसीप्रकार अकालमृत्यु में काल समवाय के सिवाय निमित्तादि की अपेक्षा मुख्य रहती है; आगम में काल के अतिरिक्त चार समवायों का एक नाम अकाल भी है; अत: यदि काल को गौण करो तो वह मरण अकाल मरण कहलाता है; जबकि सर्वज्ञ के ज्ञान के अनुसार उस जीव का उसी समय मरण उनके ज्ञान में आया था। इसीकारण ज्ञानी मृत्युभय से निर्भय हो जाते हैं। फिर अकाल मरण होता ही नहीं है - ऐसा एकान्त नहीं है, क्योंकि काल को गौण किया जाता है, उसका अभाव नहीं। तात्पर्य यह है कि पाँच समवायों में काल के अतिरिक्त अन्य स्वभाव, पुरुषार्थ, होनहार और निमित्तरूप चार समवायों की मुख्यता से मृत्यु की बात करें तो उसे अकाल मरण कहते हैं तथा जब काल की मुख्यता से बात करें तो वही मृत्यु की घटना स्वकाल में हुई - ऐसा कहा जाता है।" एक श्रोता ने पूछा - जब सबकुछ क्रमबद्ध ही है तो आप समझाने के चक्कर में पड़कर व्यर्थ परेशान ही क्यों हो रहीं हैं ? जब हमारी समझ में आना होगा, आ जावेगा और यदि नहीं आना होगा, तो नहीं आवेगा; आप इतनी अधीर क्यों हो रही हैं ? समताश्री ने कहा - 'हम क्यों परेशान हो रहे हैं, इतने अधीर क्यों हो रहे हैं ?' - आपका यह कहना भी ठीक ही है; परन्तु हम आपके कारण नहीं, अपने राग के कारण अधीर हो रहे हैं। हम भी चाहते हैं कि हम भी जगत की चिन्ता में व्यर्थ ही अधीर न हों; पर हम क्या करें हमें यह राग आ ही जाता है, आये बिना रहता नहीं है और इस भूमिका में यह अनुचित भी नहीं है। मुक्तिमार्गी भावलिंगी मुनिराजों को भी इसप्रकार का राग आये बिना नहीं रहता, अन्यथा परमागमों की रचना भी कैसे होती, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह राग अच्छा है। आखिर है तो राग ही, जो आकुलतारूप ही है। जो इस शुभोपयोग से ऊपर उठकर स्वरूप में स्थिर हो जाय तो उससे बढकर तो कोई बात हो ही नहीं सकती, परन्तु मुनिराजों के समान हमारे भी यह राग आये बिना नहीं रहता कि जिस सत्य को हमने समझा है, जिससे हमें अनंत शान्ति मिली है, उस सत्य को सारा जगत समझ कर अभूतपूर्व शान्ति प्राप्त करे। जिन्हें क्रमबद्धपर्याय में पुरुषार्थ लुप्त होता हुआ दिखता है, उन्हें पुरुषार्थ की परिभाषा और स्वरूप का जैनदर्शन के आलोक में पुनरावलोकन करना होगा।' दूसरे श्रोता ने पूछा - 'सर्वज्ञ भगवान ने जब हमें धर्म का प्रगट होना देखा होगा, उसीसमय प्रगट होगा तो इससमय यह सब समझाने की क्या जरूरत है?' उत्तर में समताश्री ने कहा - "अरे भाई ! 'सर्वज्ञ भगवान ने जो देखा है, उसीप्रकार सब होता है' - ऐसे सर्वज्ञ के ज्ञान का और वस्तु के स्वभाव का निर्णय जिसने किया? उसकी वह ज्ञान पर्याय आत्मस्वभावोन्मुख हुये बिना नहीं रहती तथा उसे वर्तमान में ही धर्म का प्रारम्भ हो (39)

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