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नींव का पत्थर
जाता है, और सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में भी वैसा ही ज्ञात हुआ होता है।
जिसने आत्मा के पूर्णज्ञान सामर्थ्य को प्रतीति में लेकर उसमें एकता स्थापित की, वास्तव में उसी को सर्वज्ञ के ज्ञान की प्रतीति हुई कहलाती है।
वास्तव में ज्ञायकपना ही आत्मा का पुरुषार्थ है, ज्ञायकपने से पृथक दूसरा कोई सम्यक् पुरुषार्थ नहीं है।
अरे ! मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव मोक्ष के लिये ऐसे पुरुषार्थ पूर्वक ही मोक्ष प्राप्त करेंगे - ऐसा ही सर्वज्ञ भगवान ने देखा है। ऐसे यथार्थ निर्णय में तो जहाँ ज्ञानस्वभाव का निर्णय हुआ वहाँ मोक्षमार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ भी आ गया। स्वभाव और पुरुषार्थ की श्रद्धा वाले की होनहार भी भली होती है और उसकी काललब्धि भी मुक्तिमार्ग पाने के निकट आ गई, इसतरह जिसके चार-चार समवाय हो गये उसको निमित्त भी तदनुकूल मिलता ही है।
इस सर्वज्ञता के और क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त स्वतः फलित हो जाता है; क्योंकि वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त में छहों द्रव्य-गुण-पर्यायों के परिणमन को स्वतंत्र, स्वावलम्बी बताते हुए भी उनमें जो कारण-कार्य का स्वाभाविक सम्बन्ध दर्शाया है, वही सब प्रक्रिया क्रमबद्धपर्याय में भी होती है। ____ जो व्यक्ति इन्हें समझकर इनका श्रद्धालु हो जाता है, नियम से उसका संसार सागर गोखुर के गड्ढे जैसा अल्प रह जाता है।"
समय समाप्त होने को ही था कि अम्माजी ने पूछा - 'धर्माचरण करते हुए भी कषायें कम नहीं होती। राग-द्वेष यथावत चालू रहते हैं। मैं भी उन्हीं में एक हूँ, कृपया इसका और उपाय हो तो वे भी बता सकें तो अच्छा है।
समताश्री ने कहा 'यह विषय भी विचारणीय है; परन्तु अभी समय हो गया। कल ज्योत्स्ना ने महावीर जयंती के उपलक्ष में जो गोष्ठी का आयोजन रखा है। उसका विषय चार अभाव से वस्तुस्वातंत्र्य की सिद्धि है। इसी की चर्चा में आपकी समस्या का समाधान हो जायेगा।' .
कुछ अनछुए पहलू महिला मंडल के मंच से आयोजित महावीर जयंती के दो दिवसीय मंगल महोत्सव के प्रारंभ में मंच की संचालिका ज्योत्स्ना जैन ने आज के अध्यक्ष को मंच पर आने का आह्वान करते हुए कहा - "इस वर्ष हम इस अवसर पर विविध कार्यक्रमों द्वारा भगवान महावीर द्वारा निरूपित उन अनछुए महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे जो आम जनता में अबतक चर्चित ही नहीं हुए। अबतक अधिकांश भगवान महावीर और उनकी अहिंसा विषय पर ही बोला जाता रहा है। ___ यदि हमें नर से नारायण ही नहीं, बल्कि पशु से परमात्मा बनने की प्रक्रिया जानना है तो भगवान महावीर के जीवन दर्शन को देखना होगा, एतदर्थ उनके दस भव पीछे जाकर हम उनकी सिंह पर्याय की जीवन शैली की कल्पना करें, जब उस सिंह के पंचेन्द्रिय जीवों के प्राणघात किए बिना पेट भरना भी असंभव था; क्योंकि सिंह के प्रकृति से ही न तो ऐसे दाँत होते हैं, जिनसे कि वह घास चबा सके और न ऐसी आँत ही होती है जिससे कि शाकाहार को पचा सके और उस खूखार प्राणी को रोज-रोज रोटियाँ कौन दे? इस कारण उदरपोषण के लिए मांसाहार उसकी तो मजबूरी थी।
मांसाहारी पशुओं की मजबूरी की बात तो समझ में आती है, परन्तु यह समझ में नहीं आता कि मनुष्य को ऐसी क्या मजबूरी है जो मांसाहार एवं मांसाहार जैसे अन्य अभक्ष्य पदार्थ खाता है। यह तो प्रकति से ही शाकाहारी है। किसी कवि ने बहुत अच्छा लिखा है -
'मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं है।'
खैर ! मैं तो महावीर भगवान के दस भव पूर्व सिंह पर्याय की बात कह रही हूँ। सिंह जैसी क्रूर पर्याय में आत्मकल्याण के हेतुभूत सद् निमित्तों
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