Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ नींव का पत्थर जिस देह में आतम रहे वह देह ही जब भिन्न है। तब क्या करें उसकी कथा जो क्षेत्र से भी अन्य है।। हैं भिन्न परिजन भिन्न पुरजन भिन्न ही ध्रुवधाम है। हैं भिन्न भगनी भिन्न जननी भिन्न ही प्रियवाम है।। अनुज-अग्रज सुत-सुता प्रिय सुहृद जब सब भिन्न हैं। ये शुभ-अशुभ संयोगजा चिवृत्तियाँ भी अन्य है ।। स्वोन्मुख चिद्वृत्तियाँ भी आत्मा से अन्य है। चैतन्यमय ध्रुवआत्मा गुणभेद से भी अन्य है।।' इन भावनाओं को शान्त चित्त से सुनते-सुनते जीवराज की मूर्छा टूट गई, नेत्र खोल कर उसने देखा समता गंभीर मुद्रा में उदास बैठी वैराग्य भावना पढ़ रही है, वह मुस्कुराया, उसे मुस्कराते देख समता का मुखकमल भी खिल गया। "सभी संयोग क्षणभंगुर हैं, पर्यायें लयधर्मा हैं, परिजन-पुरजन, जननी-भगनी, सुत-सुता, ध्रुव-धाम और प्रियवाम - सब भिन्न हैं, अशरण हैं; एकमात्र शुद्धात्मा और परमात्मा ही शरणभूत हैं।" ये सभी बातें जीवराज ने कान लगाकर सुनी थी, इससे उसका वैराग्य और अधिक दृढ़ हो गया और उसने शेष जीवन संयम और साधना के साथ जीने का संकल्प ले लिया। अभी वह पूरी तरह स्वस्थ तो नहीं हो पाया, पर अपनी दिनचर्या किसी तरह समता के सहारे से कर लेता है और प्रवचनों के टेप, सी.डी. सुनकर अपना जीवन सार्थक कर रहा है। समता को अत्यन्त उदास और दु:खी देखकर जीवराज को देखने आनेवालों में से एक ने कहा - "दूसरों को दु:खी न होने की सलाह देनीवाली समता स्वयं कैसी दु:खी हो रही है? क्या ये उपदेशमात्र दूसरों के लिए ही होते हैं?" दूसरे साथी ने समाधान किया - "अरे भाई ! बिना जाने-समझे और बिना सोचे-विचारे तुम्हें किसी की ऐसी आलोचना नहीं करना १. बारह भावना के छन्द - डॉ. भारिल्ल धन्य है वह नारी चाहिए। ज्ञानी की भूमिका क्या/कैसी होती है, इसका तो तुम्हें कुछ पता है नहीं और ऐसे अवसर पर भी जो मुँह में आया कह दिया। जो सुनेगा वह तुम्हें ही मूरख कहेगा। किसी भी बात को कहने के पहले उसकी प्रतिक्रिया दूसरों पर क्या होगी, इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए। खैर ....... सुनो ! कोई कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, ऐसी जानलेवा बीमारी की प्रतिकूल परिस्थितियों में तो धैर्य का बाँध टूट ही जाता है। वह साधुसन्यासिन तो है नहीं; ज्ञानी ही तो है। जीवनभर का रागात्मक संबंध भला पलभर में विराग में कैसे बदल जायेगा । अभी तुम ऐसा क्यों बोलते हो? धीरे-धीरे देखना होता है क्या? दूसरों को समझाना, ढांढस बंधाना अलग बात है और स्वयं का ऐसी खतरनाक बीमारी की विषम परिस्थिति में सहज रह पाना बात ही कुछ और है। रोगी की वेदना की कल्पना से ही रोना आ जाता है। समतारानी का रोना कोई अनहोनी बात नहीं है, उसकी भूमिका में वह बिल्कुल स्वाभाविक है। फिर भी उसकी हिम्मत की दाद तो देनी ही पड़ेगी। धन्य है उस नारी को, जिसने जीवराज को प्रत्येक भली-बुरी परिस्थिति में फूलों जैसा सहेजा, संभाला और उसकी सेवा-सुशुश्रा से ही वह निराकुलता से आत्मा-परमात्मा की आराधना करते हुए अपने जीवन को सफल कर रहा है। जीवराज को इस दु:खद अवस्था में ढांढ़स बंधाने आनेवालों में एक व्यक्ति ने दूसरे के कान में जो कमेन्ट्स किया, वह बात कानों-कान समतारानी तक पहुँच ही गई। इसलिए तो कहा है - "चतुकर्णे भिद्यतेवार्ता द्विकर्णे स्थिरी भवेत्” कोई बात चार कानों में पहुंची नहीं कि जग जाहिर हो जाती है। अतः किसी से कुछ कहने के पहले बात को विवेक की तराजू पर तौलना चाहिए। (10)

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