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नींव का पत्थर
माँ और सरस्वती माँ
समझता है और दूसरों से भी वही/वैसा ही धर्माचरण करने की अपेक्षा रखता है, अन्यथा अपने को धर्मात्मा और अन्यों को अधर्मात्मा घोषित करता रहता है, जबकि धर्म के वास्तविक स्वरूप से वह स्वयं भी अभी अनजान है। _ विराग ने माँ से कहा - 'मैंने एक बार यह सुना था कि धर्म तो वस्तु का स्वरूप है और वस्तु का स्वरूप बनाया नहीं जाता। वह तो अनादिअनन्त-त्रिकाल आग की उष्णता और पानी की शीतलता की भाँति एकरूप ही होता है।
त्रिकाली स्वभाव सदा एकरूप ही रहता है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, बल्कि करना बंद करना पड़ता है अर्थात् अनादिकाल से वस्तु स्वरूप के अज्ञान के कारण जो हमारी परद्रव्य में कर्तृत्व बुद्धि है, उसे छोड़ना पड़ता है। जिस तरह पानी का स्वभाव ठंडा है उसे ठंडा रखने के लिए और आग का स्वभाव उष्ण है उसे उष्ण रखने के लिए क्या करना पड़ता है? कुछ भी नहीं। इसी तरह आत्मा का स्वभाव जानना है, समता है, क्षमा है तो जानने के लिए और सहज समता रखने के लिए क्या करना पड़ता है, कुछ भी नहीं।"
माँ ने कहा - "बेटा ! तूने यह जो सुना-समझा है, बिल्कुल सही है।
जिस तरह आग का स्वभाव उष्ण है, उसी तरह आत्मा का स्वभाव जानना है; क्षमा, निरभिमान, निष्कपट तथा निर्लोभ है। ये ही आत्मा के धर्म हैं।
जगत में भी ऐसा कोई मजहब, सम्प्रदाय और जातिगत धर्म नहीं है जो क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि तथा अहिंसा-सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह को धर्म नहीं मानता हो तथा क्रोध-मान-माया-लोभ और मोह-राग-द्वेष तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह को अधर्म न मानता हो। वस्तुतः ये ही धर्म/अधर्म हैं।"
यह सब सुनकर और उनके अध्ययन, मनन, चिन्तन एवं प्रवचन आदि को देखकर विराग को ऐसा लगा कि “माँ को धार्मिक ज्ञान बहुत है। मैं धर्म का स्वरूप समझने के लिए अपनी माँ को ही गुरु बना लूँ? माँ से बढ़कर अभी और कोई ज्ञानी-ध्यानी और विरागी नजर भी तो नहीं आता। माँ घर में रहकर भी गृह विरत हैं, निरंतर स्व-पर कल्याण में संलग्न है। माँ धर्मध्यान की धुन में इतनी मग्न रहती है कि धर्म चर्चावार्ता के सिवाय अन्यत्र उसका मन लगता ही नहीं है। अतः मैं अन्य लोगों की भाँति यह गलती नहीं करूँगा कि 'घर में आये नाग न पूजें बामी पूजन जाँय' यह तो मेरा परम सौभाग्य ही है कि वे मेरी माँ भी है और सरस्वती माँ भी।"
ऐसा विचार कर उसने निश्चय कर लिया कि “मैं कल से प्रतिदिन प्रातः और शाम को एक-एक घंटे माँ के प्रवचनों में अवश्य बैलूंगा।"
अब वह अपनी माँ को माँ के रूप में कम और साक्षात् सरस्वती माँ के रूप में अधिक देखने लगा और भारी श्रद्धा भक्ति से उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनने लगा एवं समझने की कोशिश करने लगा।
विराग ने सोचा - "जब तक वक्ता के प्रति श्रोता की ऐसी श्रद्धा भक्ति नहीं होगी और सम्पूर्ण समर्पण नहीं होगा एवं उनके प्रवचनों को ध्यान से नहीं सुनेगा तब तक उसे तत्त्वज्ञान का लाभ नहीं होगा।” यही सोचकर विराग और चेतना ने माँ को गुरु जैसा बहुमान दिया। ___ एक दिन विराग ने माँ से अत्यन्त विनयपूर्वक निवेदन किया कि - "माँ! धर्माचरण तो मैं आपकी प्रेरणा से बचपन से ही कर रहा हूँ, परन्तु उससे धन-वैभव आदि परपदार्थों के प्रति मेरा आकर्षण एवं ममत्व कम नहीं हुआ, क्रोधादि कषायें यथावत हैं, विषय-वासना की प्रवृत्ति भी पूर्ववत ही है, अत: मैं वह धर्म समझना चाहता हूँ जिससे इन सबसे मुक्ति मिले; क्योंकि इनके कारण आकुलता बनी ही रहती है, जबकि धर्म का फल तो निराकुलता है - ऐसा मैंने छहढाला आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में पढ़ा है।”
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