________________
नींव का पत्थर
बहू हो तो ऐसी
अम्मा ने कहा - "अरे बहू ! तू क्या जाने इन दन्द-फन्दों को ? यह तो कलयुग का सबसे बड़ा पड़ोसी धर्म है। यदि दो पड़ोसनें प्रेम से रहती हों या सास-बहुएँ प्रेम से रहती हों तो उनके प्रेम से रहने में कलहप्रिय व्यक्तियों को मजा नहीं आता। अत: वे इधर की गुप्त बातें उधर, उधर की गुप्त बातें इधर कहकर उन्हें आपस में लड़ा-भिड़ा देते हैं, जब वे जाँघे ठोककर लड़ने लगते हैं तो हम दाँतों में रूमाल दबा कर हँसते हैं और मजा लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह कहावत चल पड़ी। इसका मूल स्रोत बुन्देलखण्डी लोकनृत्य है, जिसे गाँव की भाषा में राई कहते हैं। उस लोकनृत्य में प्रकाश के लिए मसालची के हाथों में जो मशालें होती हैं, उन्हें ही पलीता कहते हैं। उन पलीतों में तेल डालकर रोशनी करते हैं, नर्तक-नर्तकियों को होड़ लगाकर रातभर नचा-नचाकर मजा लेते हैं, भले वे नाचते-नाचते थककर चकनाचूर हो जाँय, बेहोश होकर गिर पड़ें, दर्शकों को इसकी कुछ भी परवाह नहीं होती। वे तो नशे में मस्त होकर स्वयं झूमते हैं और पैसों से प्रोत्साहित कर-करके उन्हें नचाते हैं। ___इसीतरह कलहप्रिय पड़ोसी-पड़ोसिनें दूसरों को लड़ा-भिड़ाकर मजा लेते हैं। मैं उस गंदे वातावरण को आमूलचूल बदलना चाहती हूँ। मुझे इस काम में तेरे सहयोग की जरूरत है। यही समस्या मैंने एक जन्तर-मन्तर जानने वाले बाबा के पास रखी भी थी तो उसने मुझे पाँच हजार रुपये में तीन ताबीज दिए थे और तीन माह तक दोनों बाजओं में बाँधने और गले में पहनने को कहा था; तीन माह की जगह छ: माह हो गये; पर उनसे अबतक तो कुछ हुआ नहीं।"
ज्योत्स्ना ने कहा - "अम्मा ! आप ऐसे-वैसे बाबाओं की बातों में न आया करो! ये सब बुद्धू बनाने की बातें हैं। ऐसे कोई यंत्र-मंत्र-तंत्र नहीं होते । अम्मा ! आप मेरी दादी की उम्र की तो होंगी? आप अभी भी ऐसे चक्करों में पड़ जाती हो। खैर ! एक दिन आप मेरी माँ के प्रवचन में पुन: चलना। वे कुछ ऐसी ज्ञान की बातें बता देंगी, जिससे आपकी सब
परेशानियाँ दूर हो जायेंगी और आपको विश्वकल्याण अर्थात् जनहित करने और आत्मकल्याण करने की सही विधि मिल जायेगी।"
अम्मा ने स्वीकार किया - "बेटी! तू ठीक कहती है, मैंने तेरी माँ का एक प्रवचन सुना था, उससे भी मुझे बहुत शान्ति मिली थी। मैं जरूर चलूँगी।"
माँ समताश्री के प्रवचन में आज ज्योत्स्ना की पड़ोसिन अम्मा भी आई और अग्रिम पंक्ति में बैठी, ताकि ध्यान से सुन सके । ज्योत्स्ना ने प्रवचन प्रारंभ होने के पहले ही माँ को उस पड़ौसिन अम्मा की समस्या से अवगत करा दिया था। अत: समताश्री ने क्रमबद्धपर्याय और सर्वज्ञता के द्वारा वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त की सिद्धि से ये आर्त-रौद्र के परिणामों की दिशा स्वयं कैसे बदल जाती है तथा स्व-पर कल्याण कैसे संभव है ? यह विषय सरल भाषा में विस्तार से समझाने का निश्चय किया और बीचबीच में अम्मा को संबोधते हुए उन्होंने कहा - किसी को भी मानसिक दु:ख न हो, सभी सद्भाव से रहें। कोई किसी को लड़ाये-भिड़ाये नहीं। इसके लिए हमें भगवान की सर्वज्ञता के आधार पर क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझना होगा। “देखो अम्माजी ! मैं पहले किसी धर्म विशेष की बात न कहकर सर्वसम्मत बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं। पहली बात तो यह है कि विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो किसी न किसी रूप में भगवान को नहीं मानता हो और दूसरी बात यह कि जो भगवान को मानता है, वह उसे सर्वज्ञ भी मानता ही है। तीसरी बात सर्व शक्तिवान भगवान सर्वज्ञ हमारे-तुम्हारे-सबके भविष्य को भी जानते ही हैं। चौथी बात - वह सर्वज्ञ विश्व में जिस द्रव्य में जो होनेवाला है, उसे ही जानेंगे! अनहोनी तो जानेंगे ही नहीं।
इन सब बातों से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब जो होना है, वही होता है तो हम भला-बुरा करने के भाव करके व्यर्थ में पुण्य-पाप के चक्कर में क्यों पड़ें। जो सर्वज्ञ के जाने गये अनुसार होना है, उसमें हमारा क्या स्थान है ? बस हमें इतना जानना भर है। यदि न जानो तो यह भी
(34)