Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ नींव का पत्थर बहू हो तो ऐसी इसप्रकार ज्योत्स्ना ने अपनी नीति बड़े प्यार से पड़ोसिन अम्मा को समझा दी। अम्मा ने कहा - "यह तो अति उत्तम है। यह प्रयोग मैं भी करूँगी, परन्तु मैं तो यह सोच-सोच कर हैरान थी कि जिसका पति ऐसा क्रोधी हो जो बात-बात पर इतना आग-बबूला हो जाता हो कि जो कोई भी उसे छुए तो वह जल ही जायेगा। जिसकी सास इतनी तेज-तर्रार हो, वह बहू कितनी भी सुशील व सज्जन क्यों न हो, कैसे सहती होगी इनके ऐसे अत्याचार ? सहनशीलता की भी तो कोई हद होती है। मैं यह सब सोचकर कौतूहलवश यह जानने को यहाँ आई थी; पर यहाँ आकर देखा तो यहाँ तो सचमुच सब उलट-पलट ही हो गया । गजब हो गया ! बहू ! तूने ऐसा क्या जादू कर दिया ? इसकी विशेष जानकारी तो तेरे निकट सम्पर्क में रहने से ही मिल सकेगी; परन्तु यदि यह सफल नुस्खा मेरे हाथ लग जाय तो मैं तो इसे हर कीमत पर सारी दुनियाँ में फैला देना चाहती हूँ; क्योंकि दुनिया सास-बहुओं की कसमकस से परेशान है। फिर 'सास भी कभी बहू थी' जैसे टी. वी. सीरियलों की कोई जरुरत ही नहीं रहेगी। घर-घर की रोने-धोने की कहानियाँ भी विश्व के नक्शे से नदारद हो जायेंगी। इससे बढ़कर परोपकार का, पुण्य का अन्य कोई काम नहीं हो सकता। बहुएँ तो बेचारी दु:खी हैं ही, सासें भी कम परेशान नहीं हैं। मैं चाहती हूँ इसका कोई सरल-सा उपाय मिले। मुझे विश्वास है कि यह काम हम-तुम मिलकर कर सकते हैं। अतः त् मझे वह महामंत्र बता. जिस महामंत्र से तूने अपनी सासू माँ का दिल जीता है, उसे ज्वालाबाई से शान्तिबाई बना दिया है और गणतंत्र जैसे ज्वालामुखी को हिमालय जैसा शीतल एवं गंगा जैसा कल-कल नाद करनेवाला मधुरभाषी बना दिया है। उस महामंत्र को मैं सारे विश्व में फैला कर सबके मनस्ताप को शान्त करूँगी - ऐसा मेरा दृढ़ संकल्प है। पैसे की मुझे परवाह नहीं है। इस काम के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसा है; बल्कि मुझे तो पैसा खर्च करने की समस्या है कि कहाँ खर्च करूँ? वैसे पैसा माँगनेवालों की भी कमी नहीं है। आये दिन नवनिर्माणों के लिए चन्दा-चिठ्ठा माँगनेवाले लाईन लगा कर खड़े रहते हैं; परन्तु मैं अपनी न्याय-नीति की गाढ़ी कमाई को संसारी जीवों के मानसिक दु:खों को स्थाईरूप से दूर करने में ही लगाना चाहती हूँ। ज्योत्स्ना ! यह काम मात्र तेरे सहयोग से ही संभव है - ऐसा मुझे विश्वास हो गया है। ____ जब से तू ब्याह कर हमारे पड़ोस में आई है, तभी से मैं बराबर देख रही हूँ कि तेरे शान्त स्वभाव और मधुर व्यवहार की शीतल धारा से गणतंत्र जैसा क्रोधी धीरे-धीरे शान्त हो रहा है और सासू माँ में तो आमूलचूल परिवर्तन हो ही गया है। यह काम किसी जादू से कम चमत्कारिक नहीं है। वैसे मैं बहुत देर से प्रभावित होती हूँ, इसकारण बहुत कम लोगों की तारीफ करती हूँ। अधिकतर तो मुझे भी अभी तक इसी में मजा आता रहा कि - ‘दोनों पलीतों दे दो तैल, तुम नाचो हम देखें खेल ।' परन्तु एक दिन अनायास मैं एक सहेली के साथ तेरी माँ समताश्री के प्रवचन में पहुँच गई। संयोग से उस दिन रौद्र ध्यान की चर्चा चल रही थी। उन्होंने कहा - 'सच्ची-झूठी चुगलखोरी करके परस्पर में दो व्यक्तियों को मेढों और मुर्गों की तरह लड़ा-भिड़ाकर उसमें आनन्द लेना रौद्रध्यान है, जिसका फल नरक है। तभी से मैंने कसम खाली कि अब मैं आगे से तो ऐसा काम करूँगी ही नहीं, अबतक किए गये इस रौद्रध्यान के प्रायश्चित्त स्वरूप मैं कुछ ऐसा करूँगी, जिसके फल में सब जीव सुखी रह सकें। कोई परस्पर में कलह न करें, लड़ें-भिड़ें नहीं और दूसरों को लड़ाकर आनन्द न माने।" ___ बहुत देर से मौन साधे ध्यान से पड़ोसिन की बात सुनते हुए मौनभंग करके ज्योत्स्ना ने पूछा – “अम्माजी यह पलीतोंवाली कहावत जो आपने कही, उसमें पलीतों का क्या अर्थ है और यह किस प्रयोजन से, कैसे प्रचलित हुई है।" (33)

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65