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वस्तु स्वातंत्र्य और अहिंसा
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जाता। जीवघात तो अनेक कारणों से हो जाता; होता ही रहता है; जैसे - प्राकृतिक प्रलय, तूफान, बाढ़, महामारी, आगजनी, भूकम्प आदि अनेक ऐसी घटनायें होतीं ही रहती हैं; जिनमें असंख्य मानव पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े और पेड़-पौधों तक का घात हो जाता है, फिर भी हिंसा का पाप किसी को नहीं लगता। उसे हिंसा कहते भी नहीं है।
इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति किसी के घात करने की सोचता भी है तथा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कोई ऐसी योजना बनाता है, जिसमें जीवों के मरने की संभावनायें होती हैं तो भले ही उसके सोच के अनुसार व्यक्ति का घात न हो और उसकी वह हिंसक योजना फेल हो जाने से एक जीव का घात न भी हो तो भी वह घात करने की सोचनेवाला और योजना बनानेवाला हिंसक है, अपराधी है; क्योंकि उसने सोचने एवं योजना बनाते समय जीवों के घात की परवाह नहीं की।
वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अन्य जीवों के मरने न मरने से नहीं है, बल्कि स्वयं के अभिप्राय से है। यदि स्वयं का परिणाम क्रूर है और अभिप्राय जीवों के घात का है तो हम नियम से हिंसक हैं तथा • अभिप्राय में क्रूरता और जीवघात की भावना नहीं है तो अन्य जीवों के मरने पर भी हम अहिंसक हैं जैसे कि ऑपरेशन थियेटर में ऑपरेशन करते-करते मरीज मर जाता है, किन्तु उस मौत के कारण डॉक्टर को हिंसक नहीं माना जाता। अतः जीव के मरने जीने से हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध नहीं है। हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है।
दो हजार वर्ष पूर्व लिखे आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है कि- 'प्रमत्तयोगातप्राणव्ययरोपणं हिंसा' अर्थात् प्रमाद के योग से हुआ जीवघात ही हिंसा है। वह प्रमाद १५ प्रकार का है - ४ कषायें, ४ विकथायें, ५ इन्द्रियों के विषय और निद्रा व प्रणय का आत्मा में होना भाव हिंसा एवं प्राणों का व्यपरोपण द्रव्य हिंसा है और इनका आत्मा में