Book Title: Neev ka Patthar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ नींव का पत्थर पूर्वाग्रह के झाड़ की जड़ें गहरी नहीं होती यह जरूरी भी है, मन्थन से ही तो मक्खन निकलता है न! अन्यथा सही और अच्छे निष्कर्ष ही नहीं निकलेंगे। हाँ, बातों-बातों में अशान्ति और मन मुटाव नहीं होना चाहिए।” | -- होकर पूर्वाग्रहों में पलती हैं और तनावग्रस्त हो जाती हैं। धीरे-धीरे उन पूर्वाग्रहों से प्रभावित होकर वे मुखर हो जाती है। उनका मानस ऐसा बन जाता है कि मानो वे सुसराल नहीं, बल्कि किसी युद्धस्थल की सीमा रेखा पर जा रही हों।" ससुराल पहुँचते ही मैं-मैं, तू-तू से बात प्रारंभ होती और बात-बात में वाक्युद्ध प्रारंभ होने लगता। इस मैं-मैं, तू-तू के संदर्भ में यदि बहुएँ आत्मनिरीक्षण करें, और सासू माँ के उन संजोये स्वप्नों का सर्वेक्षण करें, जो सासू माँ ने बहू के शुभागमन के पूर्व संजोये थे तथा उस दृश्य को याद करें, जब उसने पलक पाँवड़े बिछाकर बहू का स्वागत किया था तो कभी ऐसी मैं-मैं, तू-तू की समस्या ही नहीं आयेगी। समता आश्वस्त हो गई कि "इसमें सासों का कोई दोष नहीं है, बेटियाँ और बहुएँ भी अधिक दोषी नहीं है। यह तो घर के आंगन में रोपा गया कटीला झाड़ है, जिसे आसानी से उखाड़ा जा सकता है। इस पूर्वाग्रहरूप झाड़ की जड़ें जमीन में गहरी नहीं, पत्थर पर हैं, अतः चिन्ता की कोई बात नहीं हैं। मैं ज्योति में इस हठाग्रह के अंकुर को पनपने ही नहीं दूंगी, उसके दिल से निकाल दूंगी। माँ समता ज्योत्स्ना बेटी को समझाती है - "बहुएँ या सासें कोई कठपुतलियाँ तो नहीं; जो दूसरों की उंगलियों के इशारे से नाचतीं हैं। सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं, अपने-अपने विचार होते हैं, उन्हें सुनें-समझें फिर एकमत हों तो ठीक; अन्यथा कोई बात नहीं। जो जिसे ऊंचे करने दो; सब अपने-अपने मन के मर्जी के मालिक हैं, राजा हैं, उन्हें मर्जी का मालिक और मन का राजा ही रहने दें। वस्तुस्वातंत्र्य के महामंत्र का स्मरण करके कोई किसी के काम में हस्तक्षेप न करें। न स्वयं अपने मन को मारे और न दूसरों के मन को मरोड़े। यही सुख-शान्ति से रहने का महामंत्र है। अतः वस्तुस्वातंत्र्य का महामंत्र जपो और आकुलता से बचो। यही संतों का उपदेश है, आदेश है।" - यह सब समता ने ज्योति को समझाया। ____ ज्योत्स्ना ने कहा - "माँ ! तुम्हारा वस्तु स्वातंत्र्य का मंत्र वास्तव में सब मंत्रों में श्रेष्ठ है। समस्त विषय-विकार का विष नष्ट करने में समर्थ हैं, परन्तु इसे कैसे जपें? इसकी विधि बताओ न !" माँ ने कहा - "हाँ सुनो ! वस्तुस्वातंत्र्य सिद्धान्त को समझने/ समझाने के लिए पहले यह जाने कि - स्वतंत्रता के तीन रूप होते हैं। (१) अस्तित्वात्मक स्वतंत्रता (२) क्रियात्मक स्वतंत्रता (३) ज्ञानात्मक स्वतंत्रता । इनमें प्रथम व द्वितीय स्वतंत्रता तो सभी वस्तुओं में अनादि से है ही; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्यायरूप वस्तुओं का अस्तित्व और उनमें होने वाला क्रियारूप स्वभाव-परिणमन तो अनादि से स्वाधीनतापूर्वक हो ही रहा है; किन्तु ज्ञानात्मक स्वतंत्रता अज्ञानी जीवों को नहीं है अर्थात् अज्ञानी को अपने स्वतंत्र अस्तित्व और क्रिया की स्वाधीनता का ज्ञान नहीं है। माँ समता सोचती है - "गणतंत्र के माता-पिता पूर्व परिचित ज्योत्स्ना जैसी सुशील भोली-भाली बुद्धिमान बहु को पाकर अपने जीवन को धन्य मान रहे हैं, परन्तु प्रारंभ में एक-दूसरे की भावनाओं को न समझ पाने से कभी-कभी सास-बहू के विचारों में मतभेद भी खड़े होना अस्वाभाविक नहीं हैं। यद्यपि सास और बहू - दोनों के हृदय साफ होते हैं, परन्तु विचार भेद तो हो ही सकते हैं। जो सोचते हैं, विचारते हैं, उन्हीं के विचारों में ही तो कभी किसी बात में सहमति तो कभी किसी बात में असहमति भी होती है। जिनके मति होती है, उन्हीं के तो सहमति और असहमति होती है। अतः यह कोई बुरा लक्षण नहीं है। विचार मन्थन में (17)

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