Book Title: Navtattva Adhunik Sandarbh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 10
________________ वह ज्ञाता होना चाहता है ३ वह मन के स्तर पर हो चलता रहेगा । जैसे दुनियावी आदमी मन के खेल खेलता है वैसे ही ध्यान करने वाला भी मन के खेल खेलता है । हमें मन से ऊपर उठकर चेतना के स्तर तक जाना है, ज्ञाता का संवेदन या अनुभव करना है । स्वप्रकाशी है ज्ञाता ध्यान का मूल उद्देश्य है - ज्ञाता का साक्षात्कार, जानने वाले को जानना । प्रश्न हो सकता है - ज्ञाता स्वयं जानता है, फिर उसे क्यों जाना जाए। वही दूसरों को जान सकता है, जो स्वयं को जानता है । जो स्वयं को नहीं जानता, वह दूसरों को भी नहीं जान सकता । प्रमाण शास्त्र का प्रसिद्ध सूत्र है - वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है, जो स्वयं को भी जानता है और दूसरों को भी जानता है, जो अपना निश्चय भी करता है, दूसरों का निश्चय भी करता है । जो स्वयं प्रकाशी नहीं है, वह दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकता । जितने भी प्रकाशशील द्रव्य हैं, वे स्वयं प्रकाशी हैं इसलिए दूसरों को प्रकाशित कर पाते हैं । यदि आत्मा - ज्ञाता स्वप्रकाशी नहीं है तो वह दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकता, इसलिए ज्ञाता स्व को जानता हो है । कोई भी ज्ञाता ऐसा नहीं है, जो अपने आपको नहीं जानता । आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा- जीव निरन्तर जानता है इसलिए वह ज्ञायक है, ज्ञानी है और ज्ञान ज्ञायक से अव्यतिरिक्त है जम्हा जाणदि णिच्चं, तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी । णाणं च जाणयादो, अवदिरितं मुणेयव्वं ॥ व्यक्ति को प्रज्ञा के द्वारा यह ग्रहण करना चाहिएजो जानने वाला है वह मैं हूं, जो देखने वाला है वह मैं हूं, शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only ------- www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66