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वह ज्ञाता होना चाहता है
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वह मन के स्तर पर हो चलता रहेगा । जैसे दुनियावी आदमी मन के खेल खेलता है वैसे ही ध्यान करने वाला भी मन के खेल खेलता है । हमें मन से ऊपर उठकर चेतना के स्तर तक जाना है, ज्ञाता का संवेदन या अनुभव करना है । स्वप्रकाशी है ज्ञाता
ध्यान का मूल उद्देश्य है - ज्ञाता का साक्षात्कार, जानने वाले को जानना । प्रश्न हो सकता है - ज्ञाता स्वयं जानता है, फिर उसे क्यों जाना जाए। वही दूसरों को जान सकता है, जो स्वयं को जानता है । जो स्वयं को नहीं जानता, वह दूसरों को भी नहीं जान सकता । प्रमाण शास्त्र का प्रसिद्ध सूत्र है - वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है, जो स्वयं को भी जानता है और दूसरों को भी जानता है, जो अपना निश्चय भी करता है, दूसरों का निश्चय भी करता है । जो स्वयं प्रकाशी नहीं है, वह दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकता । जितने भी प्रकाशशील द्रव्य हैं, वे स्वयं प्रकाशी हैं इसलिए दूसरों को प्रकाशित कर पाते हैं । यदि आत्मा - ज्ञाता स्वप्रकाशी नहीं है तो वह दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकता, इसलिए ज्ञाता स्व को जानता हो है । कोई भी ज्ञाता ऐसा नहीं है, जो अपने आपको नहीं जानता ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा- जीव निरन्तर जानता है इसलिए वह ज्ञायक है, ज्ञानी है और ज्ञान ज्ञायक से अव्यतिरिक्त है
जम्हा जाणदि णिच्चं, तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी । णाणं च जाणयादो, अवदिरितं मुणेयव्वं ॥
व्यक्ति को प्रज्ञा के द्वारा यह ग्रहण करना चाहिएजो जानने वाला है वह मैं हूं, जो देखने वाला है वह मैं हूं, शेष
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