Book Title: Navtattva Adhunik Sandarbh Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 50
________________ ४३ मनोवृत्ति को बदला जा सकता है पर्यावरण-प्रदूष ग उसे फिर बीमार बना देगा । दूसरी बात हैमनुष्य का मन अधर्म में रमण करेगा। हिंसा, झूठ, चोरी, क्रूरता आदि बुरी प्रवृत्तियों में वह अधिक लिप्त रहेगा, मानसिक तनाव बढ़ेगा । तीसरी बात है-बुद्धि का विपर्यय । आदमी नित्य को अनित्य मान लेगा, अनित्य को नित्य मान लेगा। बुद्धि का ऐसा विपर्यय होगा कि आदमी शाश्वत और अशाश्वत में भेद नहीं कर पाएगा। आचार्य पुनर्वसु ने कहा- वत्स ! ऐसा लगता है-यह त्रिदोष पर अवलंबित चिकित्सा-शास्त्र और औषधियां काम नहीं करेंगी। हम अब इसे इतना ही रहने दें और एक नया शास्त्र बनाएं, जिससे मनुष्य के मन और बुद्धि की तथा प्रकृति की स्थिति भी ठीक हो सके। दोनों जरूरी हैं स्वास्थ्य के लिए दोनों बातें जरूरी हैं-मन का निरोध और शोधन । दवा से शोधन हो सकता है पर निरोध के लिए अपनी आंतरिक शक्ति, प्राणशक्ति ज्यादा करागर होती है। केवल निरोध हो निरोध ही या केवल शोधन ही शोधन हो तो हस्ति-स्नानवत् कार्य हो जाएगा। निरोध और शोधन-दोनों साथ-साथ चलें तभी पूरी प्रक्रिया बनती है । एक ओर निरोध की प्रक्रिया को अपनाएं तो दूसरी ओर शोधन की प्रक्रिया को भी अपनाएं । शोधन के लिए तपस्या बहुत आवश्यक है । हम निर्जरा और तपस्या को दो भी कह सकते हैं। वे दोनों एक भी हैं । तपस्या के द्वारा निर्जरा होती है इसलिए निर्जरा को ही पाप मान लिया गया । वास्तव में मानना चाहिए था-संवर भोर तपस्या । किन्तु तपस्या के स्थान पर निर्जरा को मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66