Book Title: Navtattva Adhunik Sandarbh Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 51
________________ नवतत्त्व : आधुनिक संदर्भ लिया गया । तपस्या संवर और निरोध का भी उपाय है, शोधन का भी उपाय है । ध्यान : संवर भी, निर्जरा भी 1 ध्यान एक तपस्या है । ध्यान करना संवर भी है, निर्जरा भी है । एक व्यक्ति ध्यान करता है तो वह अपने शरीर की प्रवृत्ति का निरोध करना चाहता है । हम यह मानकर चलें, पूर्ण निरोध करना हमारे वश की बात नहीं है। वह अपने आप होता है । जितनी आंतरिक शुद्धि होगी उतना ही निरोध होगा । संवर का आंतरिक शुद्धि से बहुत संबंध है । निरोध की प्रक्रिया हमारी आंतरिक प्रक्रिया है । तोड़ने की प्रक्रिया प्रयत्न के साथ चलती है । हम इस भाषा में कह सकते हैं- आंतरिक शुद्धि है निरोध, बाहरी अच्छी प्रवृत्ति है तपस्या या निर्जरा | हम जितनी तपस्या करते हैं उतनी ही निर्जरा होती चली जाती है । ૪૪ परम पुरुषार्थ है निवृत्ति ध्यान एक निवृत्ति है । हम ध्यान में मन को एकाग्र करने का प्रयास करेंगे तो गर्मी बहुत बढ़ जाएगी । मन को चलाने में जितना पुरुषार्थ करना पड़ता है, मन को एकाग्र करने में उससे अधिक पुरुषार्थ करना पड़ता है । प्रवृत्ति करना सरल है, निवृत्ति करना बहुत कठिन है । ध्यान के लिए बहुत कठोर श्रम चाहिए । कमजोर आदमी ध्यान नहीं कर सकता जिसका मन और प्राणशक्ति दुर्बल है, वह ध्यान कैसे कर पाएगा ? ध्यान में प्रबल पुरुषार्थं चाहिए। वस्तुतः निवृत्ति का अर्थ पुरुषार्थहीनता नहीं है । कहना चाहिए - प्रवृत्ति है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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