Book Title: Navtattva Adhunik Sandarbh Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 12
________________ वह ज्ञाता होना चाहता है कोरा बौद्धिक ज्ञान ज्ञाता को जानने में हमारी सहायता नहीं कर सकता । उपनिषद्कारों का यह कथन महत्त्वपूर्ण हैवात्मा को बलहीन आदमी कभी नहीं पा सकता, केवल बुद्धि से आत्मा को नहीं पाया जा सकता । आत्मा अमूर्त है । उसे जानने में इन्द्रियां, मन और बुद्धि हमारा सहयोग नहीं करते । ध्यान में सबसे पहले इन्द्रियों का प्रत्याहार किया जाता है । हम ध्यान में आंखें बंद करते हैं । इसका अर्थ यही है-भीतर में देखना है तो आंख हमारा सहयोग नहीं करेगी। भीतर को देखना है तो आंखें मूंदनी होंगी। अनिवार्य है इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता हमारे दो जगत् हैं-बाहरी जगत् और भीतरी जगत् । हम बाहर के जगत् से सर्वथा मुक्ति नहीं पा सकते, क्योंकि हमारा जीवन शरीर से जुड़ा हुआ है। किन्तु हम बाहर के लिए ही पूरी आंख खुली न रखें, हमें भीतरी जगत् को भी देखना है। भीतर को जानने के लिए इन्द्रियों का प्रत्याहार जरूरी है, इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता अनिवार्य है । जो व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता, वह न ध्यान कर सकता है और न ज्ञाता को जान सकता है । वही व्यक्ति ध्यान कर सकता है, जिसने पांचों इन्द्रियों का प्रत्याहार करना सीखा है। जैन दर्शन का शब्द है-प्रतिसंलोनता और पंतजलि का शब्द है-प्रत्याहार । प्रतिसंलीनता का अर्थ है-जो इन्द्रियां बाहर की ओर जा रही है, उन्हें भीतर खींच लेना । यही प्रतिसंलीनता व्यक्ति को अपने आप में लीन कर देती है। जब इन्द्रियों की प्रति संलीनता होती है, राग और द्वेष की तरंगें अपने आप शांत हो जाती हैं। उस अवस्था में एक नई चेतना का जागरण होता है । वह है अतीन्द्रिय चेतना, निर्मल चेतना या वीतराग Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66