Book Title: Navtattva Adhunik Sandarbh Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 14
________________ वह ज्ञाता होना चाहता है है । व्यवहार नय की भाषा में कहें तो जीव है। आत्मा का मतलब है-शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता और जीव का मतलब हैप्राण । अनेकांत के अनुसार आत्मा और जीव- दोनों मान्य हैं । वेदान्त में आत्मा मान्य नहीं है, जीव शुद्ध रूप से मान्य नहीं है । जैन दर्शन में आत्मा और जीव- दोनों मान्य हैं। जीवनी शक्ति जीव है । जीव प्राण के द्वारा अपना जीवन चलाते हैं। वह जीवन तत्व है वह शरीर के साथ जुड़ा हुआ है इसीलिए साकार बना हुआ है । पर अपने शुद्ध एवं आंतरिक रूप में वह अनाकार बना हुआ है । संसार में जितने जीव हैं, उनकी आत्मा अनाकार नहीं है, साकार है। साकार का साकार के साथ ही संबंध स्थापित हो सकता है । अनाकार का साकार के साथ कभी संबंध स्थापित नहीं हो सकता। आत्मा साकार बना हुआ है इसीलिए शरीर के साथ हमारा संबंध चलता है। यदि हम आत्मा को सर्वथा अनाकार या अभौतिक मान लें तो यह संबंध स्थापित नहीं हो सकता। डेका का मंतव्य डेकार्ट ने कहा-आत्मा का निवास पिनियल ग्लैंड में है । आत्मा वहां रहती है और वहीं से पूरे शरीर को प्रकाशित करती है । डेकार्ट के इस मंतव्य पर कांट तथा अनेक दार्शनिकों ने आपत्ति की-साकार शरीर में अनाकार आत्मा कैसे रह सकती है ? डेकार्ट ने आत्मा को अभौतिक-निराकार मान लिया किन्तु उसके साथ अनेकांत का सहारा नहीं लिया इसीलिए यह आपत्ति प्रस्तुत हुई । यदि अनेकांत का सहारा लिया जाता तो यह उलझन पैदा नहीं होती। जैन दर्शन में नौ तत्त्व माने गए हैं। उनमें पहले दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । जहां ज्ञाता है वहां अज्ञाता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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