Book Title: Naishadhiya Charitam
Author(s): Harsh Mahakavi, Sanadhya Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 12
________________ साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रह-ग्रन्थिले तके वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती । शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवति दर्भाकुरैरास्तृता भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् । इस चमत्कारपूर्ण 'आह्वान' ( चुनौती ) को सुनकर पिता का वैरी पंडित तो श्रीहर्ष से अभिभूत हो गया और उसने सविनय कहा-श्रीहर्ष देव, आप तो वादकर्ताओं में इन्द्रतुल्य हैं, भारती आपको सिद्ध है, आपके समान ही कोई नहीं है, अधिक क्या होगा? जंगल में सहस्रों बलशाली हिंसक पशु होते हैं, परन्तु प्रशंसा एक सिंह के विश्वोत्तर पराक्रम को ही की जाती है, जिसकी एक हुंकारी सुनकर वराहयूथों की कोडा, मदमाते पशुओं का मद, व्याघ्रादि ( नाहल नाहर ) का कोलाहल और मैसों का आनन्द समाप्त हो जाता हैहिंस्राः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्यता. स्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् । केलि: कोलकुलमंदो मदकलैः कोलाहलं नाहले. सहर्षों महिषश्च यस्य मुमुचे साहकृते हुङ्क्ते । प्रतिवादी की यह स्थिति देख श्रीहर्ष का क्रोध उतर गया। राजा ने कहा-'इसी योग्य हैं श्रीहर्ष' । अच्छा अवसर था । राजा ने दोनों को गले मिलवा दिया। राजप्रासाद में श्रीहर्ष को ले गये । सत्कार किया, स्वर्णराशि भेंट की। एकबार राजा की इच्छा होने पर श्रीहर्ष ने प्रबंघरत्न रचा। उस दिव्यरस, महागूढव्यंग्य रचना से चारुतम महाकाव्य 'नैषधीयचरित' को देख कर राजा ने कहा कि यह अत्यंत सुन्दर है, पर कविराज, काश्मीर जाओ, वहाँ इसे पंडितों को दिखाओ भारती देवी के चरणों में रखो यदि आपका प्रबंध सत्य होगा तो देवी सिर हिलाकर 'स्वीकार' करेंगी, पुष्पवृष्टि होगी, यदि 'असत्' होगा तो देवी हाथ से उठाकर दूर फेंक देंगी। श्रीहर्ष ने वैसा ही किया, पर सरस्वती ने तो पुस्तक को उठाकर दूर फेंक दिया। श्रीहर्ष ने कहा-'बूढ़ी हो जाने से क्या हाथ कांपने लगा है, जो मेरे

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