Book Title: Mruganka Charitram
Author(s): Ruddhichandraji
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 34
________________ || अथ तस्मिन्पुरे चौरः समागत्य निरन्तरम् / चौय्य करोति निःशङ्को दुर्जयो दिव्यविद्यया // 49 // // मृगांक __. अर्थ:-हवे ते नगरमां दुर्जय एवो कोई चोर हमेशां आवीने दिव्य विद्याथी चोरी करतो हतो. // 49 // चरित्रम् एकदेति महीपालो विज्ञप्तो पुरवासिभिः। अस्माभिश्चौरभीत्या च पुरे स्थातुं न शक्यते // 50 // ____ अर्थः-तेथी एक दिवसे नगरना लोकोए राजाने विनंति करी के अमे चोरनी बीकथी आ नगरमा रहेवाने असमर्थ छीए. // 50 // .. नृपः श्रुत्वा तलारक्षमाहूयेत्यवदत् ततः। चौरं कर्षय त्वं सयो यथाऽत्र स्यात् सुखं नृणाम् // 51 // ____ अर्थ:-एम सांभळीने राजाए कोटवाळने बोलान्यो अने कीधुं के तुं चोरने तुरत पकड ? के जेथी आलोकोने मुख थाय. इत्युवाच तलारक्षो नरब्रह्ममहानृपम् / विलोकितो मया चौरः परं क्वापि न लभ्यते // 52 // ___ अर्थः-कोटवाळे नरब्रह्मराजाने कयुं के में चोरने घणो जोयो पण क्यांय मलतो नथी. // 52 // ततो मन्त्री लसबुद्धिर्नरब्रह्ममुवाच तम् / अथाऽहं तस्करं कर्षे उदित्वा बीडकं धृतम् // 53 // _ अर्थ-त्यारे लसत्बुद्धि नामना मंत्रीए राजाने कीg के आजेज हुँ चोरने पकड़ एम कही बीडु लीधुं. // 53 // इति श्रुत्वापि स चोरः प्रधानसदने गतः। दत्वाऽवखापिनी निद्रां सर्वेषां गृहवासिनाम् // 54 // // 33 // PP.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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