Book Title: Mruganka Charitram
Author(s): Ruddhichandraji
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 59
________________ मृगांक - // 58 // अर्थ:-तेणीए दूधपाकनु उत्तम भोजन बनाव्यु, ते अरसामां तेमना पुण्योदयथी मासोपवासी साधु तेमने घरे || आवी चड्या. // 71 // ततो भूयोऽर्थयित्वा च प्रदत्तं क्षीरभोजनम् / पश्चादिति कुभावश्च जातो दत्तं मया वृथा // 72 // ____ अर्थः-त्यारे लीलावतीए वारंवार प्रार्थना करीने ते दूधपाक वोरावी दीधो. पाछळथी तेणीने कुमनोरथ थयो के में फोगट आ (उत्तम भोजन ) आपी दीधुं. // 72 // हंसपालेन तेनापि कुभाव इति चिन्ततः / धिक् कान्ते ! मां हि मुक्त्वा च प्रदत्तं भोजनं मुनेः॥ अर्थः- बाद हंसपाले पण कुमनोरथ चिंतवतां थकां कीधुं के हे भिया ! तने धिक्कार छे के मने मूकीने तें बधुं भोजन साधुने आपी दीधुं. // 73 // : .... पुनर्द्वन्द्वस्य सद्भावः समुत्पन्नः समं हृदि / इदं वयं कृतं कान्ते ! परस्परं प्रशंसतः // 74 // . अर्थ:-वळी फरीने बन्नेना हृदयमा सद्भाव आव्यो के हे पिया ! आ उत्तम काम थयुं, एम परस्पर प्रशंसा करवा लाग्या. सम्यक्त्वमूलमापन्नो क्रमेण गुरुसन्निधो / धर्मकृत्यान्वितो जातो द्वावपि सततं तदा // 75 // ____ अर्थ:-त्यारवाद अनुक्रमे ते बन्नेए गुरुपासेथी सम्यक्त्व अंगीकार कयु, अने बन्ने हमेशां धर्म-कृत्यमा तत्पर थया. " // 58 // P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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