Book Title: Mruganka Charitram
Author(s): Ruddhichandraji
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ मृगांक // 49 // // अर्थः-ते स्वादथी मृगांक मनमां विचारता लाग्यो के आ शुं मारी स्त्री पद्मावती न होय ? // 25 // | चरित्रम् | या तु मया वने मुक्ता समायात्यत्र सा कथम् ? / एषस्तु शौल्किको नूनं नररूपेण दृश्यते // 26 // ____ अर्थः-अरे! जेणीने में वनमा छोडी दीधी छे ते अहिं क्याथी होय ? आ तो खरेखर पुरुषरूपधारी जगातनो उपरी छे. // 26 // सो भव्यं भोजनं भुक्त्वा वचसेत्यवदत्ततः / मां सहसाङ्क ! मुञ्चस्व कृपया दीनमन्दिरम् // 27 // ___अर्थः-उत्तम भोजन कर्या बाद मृगांके तेने विनंति करी के हे सहस्रांक ! गरीबाइना घररुप एवा मनें कृपा करीने छोड ? // 27 // श्रेष्ठिनं तं कलाधाम-सहसाङ्कः प्रजल्पिवान् / यावत्वं जीवसि भव्य! तावत्पाN न मुच्यते // 28 // ___ अर्थः-कलावान सहस्रांके ते शेठने कीधुं के हे भव्य! ज्यांसुधी तुं जीवे छे त्यांसुधी तारुं पडखं छोड़ी शकुंतेम नथी. मृगाङ्क! त्वं सदा दीन-मन्तुमानसि मे भृशम्। तेनाहं ताडयिष्यामि महद्दण्डेन पाणिना // 29 // अर्थ:-हे मृगांक! सदा दीन एवो तुं मारो घणो अपराधी छो, तेथी मारा हस्तरूपी मोटा दंडथी तने हुं मारीश.. श्रेष्ठिनं बन्धयित्वोव ताडयन्तु पुरो धृतम् / एतादृशी मुखे भीति-मदर्शयत् पुनः पुनः // 30 // 49 // PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64