Book Title: Mokshmarga Prakashak Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh View full book textPage 6
________________ ( ७ ) श्री टोडरमल स्मारक की ओर से ही मोक्षमार्ग प्रकाशक का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया जा चुका है। यद्यपि अनुवादक विद्वान् ब्र. हेमचन्द्रजी श्रुतझ मुमुक्षु हैं, परन्तु उनके अनुवाद में भी कुछ विसंगतियाँ देखने में आई हैं। दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के कोषाध्यक्ष श्री अमरचन्द्र ने उन भूलों की ओर संस्थान का ध्यानाकर्षण किया है। आशा है, अगले संस्करण में उन पर विचार किया जायेगा । अधूरे ग्रन्थ की पूर्णता के प्रयास : यह सर्वमान्य तथ्य है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक परिपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। लेखक की ग्रन्थ-प्रतिज्ञा तथा अन्य स्पष्ट संकेतों' के अनुसार यह एक अधूरा ग्रन्थ है। अधिकांश विद्वानों का तो यह मूल्यांकन है कि पण्डितजी के मन में जिस विस्तारपूर्वक ग्रन्थ लिखने का संकल्प था, उसके सामने यह लिखित भाग, ग्रन्थ का प्रारम्भ भी नहीं है। यह तो मात्र उसकी भूमिका है। पण्डितजी के व्यक्तित्व और कृतित्व. पर अपना शोधग्रन्थ प्रस्तुत करते हुए डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने स्पष्ट लिखा है कि यदि यह ग्रन्थ, जो मात्र साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ही हमें मिला है, कभी पण्डितजी के हाथों से पूरा हो पाता तो कम-से-कम पाँच हजार पृष्ठों का अवश्य होता। इस प्रकार भारिल्लजी की मान्यता में संकल्पित लेखन की मात्र सात - आठ प्रतिशत सामग्री ही हमारे सामने उपलब्ध है। पंडितजी के असमय देहावसान के तुरन्त बाद से ही इस ग्रन्थ को पूरा करने के बारे में सोचा जाने लगा था, परन्तु विषय की गहनता और वर्णन की सहजता को देखकर किसी ने भी इस काम को हाथ में लेने का साहस नहीं किया । इस सम्बन्ध में पं. लालबहादुरजी शास्त्री ने अपनी प्रस्तावना में लिखा है. - "उस समय के विद्वान् स्वतंत्र ग्रन्थ-रचना के लिए अपने आपको अधिकारी विद्वान् न पाते थे। उस सम्बन्ध में हम अपनी तरफ से कुछ न लिखकर टोडरमलजी से लगभग पचास वर्ष बाद लिखी गई पं. जयचन्द्रजी के ही एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर देना ठीक समझते हैं। यह पत्र कवि वृन्दावनदासजी काशी को लिखा गया था और 'वृन्दावन - बिलास' के अंत में ज्यों का त्यों छापा गया है। पत्र की ये पंक्तियाँ इस प्रकार हैं 'और लिख्या कि टोडरमलजी कृत मोक्षमार्ग प्रकाश ग्रन्थ पूरण भया नाहीं ताकों पूरण करना योग्य है। सो कोई एक मूलग्रन्थ की भाषा होइ तौ पूरण करें। उनकी बुद्धि बड़ी थी यातें बिना मूलग्रन्थ के आश्रय उनने किया। हमारी एती बुद्धि नाहीं । कैसे पूरण करें।" "इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि उस समय के विद्वान् स्वतन्त्र रचना के लिए अपने आपको १. देखिए इसी संस्करण के पृष्ठ २६, ११२, १२९, १३६, १७०, १९१, १९६, २१८, २७७ पर स्वयं पण्डितजी द्वारा लिखे गये वाक्यखण्ड (आगे वर्णन करेंगे, आगे कहेंगे आदि) - जिनसे उनकी लेखनयोजना का संकेत मिलता है. परन्तु जिसे वे लिख नहीं पाये ।Page Navigation
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