Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 5
________________ ( ६ ) निकलने के पूर्व स्व. पं. परमानन्दजी शास्त्री द्वारा सम्पादित चार संस्करण ढूंढारी में सस्ती ग्रन्थमाला, दिल्ली से निकल चुके थे। सोनगढ़ वालों ने उस प्रति का भी अनुकरण किया और जयपुर के वधीचन्द्र दीवान मन्दिर से हस्तलिखित प्रति मँगाकर उसके फोटो लिये तथा उसके सहारे ही बड़ी बोली का संस्करण तैयार किया था। जब स्वाध्याय मन्दिर का पहला संस्करण आया और उसकी प्रामाणिकता पर संदेह किया गया, तब पं. बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री और पं. परमानन्दजी शास्त्री ने जयपुर से वह फोटो प्रति मँगाकर उससे प्रकाशित प्रति का मिलान किया और उसमें ५७ जगह स्खलन या परिवर्तन ढूंढ निकाले । इन दोनों विद्वानों ने ग्रन्थ के कतिपय प्रसंगों पर आठ प्रश्न भी उठाये जिन पर विचार करना आवश्यक था। इस सारे उहापोह को 'मोक्षमार्ग प्रकाशक का प्रारूप' नामक एक विस्तृत लेख में दिल्ली की 'अनेकान्त' पत्रिका के वर्ष २०, किरण ६ में पृष्ठ २६१ से २७० तक दस पृष्ठों पर छापा गया। सोनगढ़ पक्ष की ओर से इन आगे या प्रपनों का आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया। यद्यपि इस लेख के आधार पर कुछ सुधार अवश्य कर लिये गये । इस प्रकार वास्तविकता यह है कि १. मोक्षमार्ग प्रकाशक परिपूर्ण ग्रन्थ नहीं है। वह अधूरा ग्रन्थ है अतः लेखक की सारी विवक्षाएँ उसमें समाहित नहीं हो सकी हैं। २. ग्रन्थ की स्वयं लेखक द्वारा तैयार की गई कोई शुद्ध पाण्डुलिपि अब तक उपलब्ध नहीं हुई। दीवानजी का मन्दिर, जयपुर से जो प्रति मिली, जिसके आधार पर सोनगढ़ ट्रस्ट ने अपना संस्करण तैयार किया, वह ग्रन्थ का प्राग्रूप मात्र था। उसके प्रारम्भ के ५५ पत्र ( १०९ पृष्ठ ) किसी अन्य व्यक्ति के हाथ के लिखे हुए हैं। इनमें पद -अक्षर और मात्राओं की प्रचुर अशुद्धियाँ हैं और इनका संशोधन पं. टोडरमलजी नहीं कर पाये। आगे के पत्र अपेक्षाकृत शुद्ध लिखे गये हैं और संशोधित भी हैं। ३. उस प्रति में अंत के कुछ पृष्ठ भी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखकर लगाये गये हैं । यहाँ इन बातों का उल्लेख करने से हमारा अभिप्राय किसी व्यक्ति या संस्था पर दोषारोपण का नहीं है। हमारा तो इतना ही राग है कि स्व. पं. टोडरमलजी का यह लेखन जिनागम की छाया है, अतः इसे अधिक से अधिक आगमानुकूल और शुद्ध रूप पाठकों के हाथ में देने का सम्यक् प्रयास किया जाना चाहिए। इसमें जोड़-तोड़ करके अपनी कषाय की पुष्टि करने या हठाग्रह करने का मान- प्रेरित कार्य नहीं किया जाना चाहिए। यदि कोई अध्येता विद्वान् इस आलेख पर प्रश्न उठाता है, या उसके किसी अंश को आगम के आलोक में पुनर्परिभाषित करने का ईमानदार प्रयत्न करता है, तो धमकी भरे पत्र लिखकर उसकी कलम छीनने के बजाय, वास्तविकता को प्रगट करना चाहिए और आगम की मूलभूत विशेषताओं की रक्षा की चिन्ता रखनी चाहिए। आवक का यही कर्तव्य है।

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