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मेरो जीवन प्रपंच कथा
कर्मों के परिणामों और उनके सुख दुःखादि फलों का गभीर ज्ञान प्राप्त होता है। मैं भी अपने इस जीवन प्रपंच में अनेक शुभ-अशुभ प्रादि कर्म करता रहा हूँ और उनके सुख दुःखादि फलों का भी अनुभव करता रहा हूँ इसलिए मैंने अपनी इस कथा को जोवन का प्रपंच बतलाने वाली कथा के नाम से अंकित किया है। इसका अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है ... ..........
सभव है कि बहुत से स्थानकवासी भाइयों को मेरे ये अनुभव रुचिकर नहीं मालूम दें. क्योंकि मैंने जो अनुभा प्रावित किये हैं वे किन्हों को कुछ प्राक्षेपात्मक लग सकते हैं । पर इनके लिखने में मेरा वैमा कोई उद्देश्य नहीं रहा है। मैंने तो केवल मेरे मन पर अनुभवों ने जो कुछ छाप डाली उन्हीं का शब्द चित्र मात्र प्रालेखित किया है । मैं उस वेष में जितने दिन रहा, घूमा-फिरा, वेष के अनुरुप प्राचार धर्भ का यथा योग्य पूरी तरह पालन करता रहा । प्रारम्भ में तो मेरी उप पर दृढ़ श्रद्धा रही । मैंने जब दक्षा ली, तब मैं कोई ठीक पढ़ा लिखा भी नहीं था और न मुझ में वैसा कोई विरक्त भाव हो जागृत हुप्रा था।
अबोध मन को संसर्ग विशेष के कारण उस वेष कोरण करने की इच्छा हो पायी। पीछे से थोड़ा थोड़ा ज्ञान प्राप्त होने पर साधु जीवन का कुछ महत्व समझ में प्राने लगा । इस जीवन का उद्देश्य क्या है और उसे किस तरह सिद्ध करना चाहिये ? इसका कोई मार्ग दर्शन कराने वाला नहीं मिला । बाल्य जीवन के कुछ पूर्वानुभव मन में जो दबे हुए थे, वे कभी कभी प्रसंग पाकर अस्पष्ट स से जाग भी उठते थे । कभी माता की स्मृति आ जाती कभी अपने पूर्वजों की स्मृति प्रा जाती, कभो दिवंगत गुरु यत्तिवयं देवी हंसजो की भी स्मति हो आती थी क्यों मैंने खात्री बाबा का वेष धारण कर लिया ? क्यों उसे छोड़ दिया इत्यादि। कई संस्मरण मन में कभो जग जाते और वे चालू जीवन के अनुभवों के साथ टकराते । इसके परिणाम स्वरुप मेरा मन विचलित होता गया तथा साथ में ज्यों-ज्यों मुझे कुछ विशिष्ट विद्या अध्ययन करने की लालसा उत्पन्न होती गई और उसका वर्तमान जीवन मार्ग में चलते रहने से संतुष्ट होना असंभव दिवाई दिया, तब मैंने जीवन का कोई दूसरा रास्ता खोजना निश्चित किया। उसके परिणाम स्वरुप मुझे उस वेश का परित्याग करना पड़ा।
मैं जिस समुदाय में था, वह छोटा सा ही समुदाय था। किन्हीं अन्य समुदायों के साथ मेरा कोई विशेष परिचय नहीं हुआ । अन्य समुदायों में साधु जीवन की कैसी स्थिती थी, उसका मुझे ठीक ज्ञान नहीं था। स्थानकवासी साधु जीवन के मेरे ये अल्प स्वल्प संस्मरण भाजे से कोई ६५-७० वर्ष से पहले के है, उस समय के और वर्तमान समय के साधु जीवन में
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