Book Title: Meri Jivan Prapanch Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh

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Page 4
________________ किंचित प्रास्ताविक पाठक के हाथ में जो पन्ने हैं, इनमें मेरी पूर्व प्रकाशित जीवन कथा के कुछ आगे के संस्मरण प्रालेखित हैं । इनके प्रालेखन के विषय में इन्हीं पृष्ठों में, प्रारम्भ में थोड़ा सा उल्लेख किया गया है। उस उल्लेखानुसार पिछले दो तीन महिनों में जो कुछ संस्मरण में लिख सका उनको इस रूप में मैंने प्रकाशित करना उचित समझा है । जैसा कि इन संस्मरणों के पढ़ने से ज्ञात होगा कि मेरे ये संस्मरण उस जीवन के साथ सम्बन्ध रखते हैं, जिनको मैंने "स्थानकवासी सम्प्रदाय का जीवनानुभव" ऐसा नाम दिया है । विक्रम सं० १९५६ के आश्विन मास में दिग्ठाण नामक मालवे के एक गांव में मैंने स्थानक वासी नाम से परिचित जैन सम्प्रदाय के साधु का वेष धारण किया और विक्रम सं० १९६५ के प्राश्विन मास में ही मालवे के उज्जैन नामक नगर में उस वेष का परित्याग किया। इस प्रकार प्राय: ६ वर्ष, मैं इस वेष में रहा । इन छः वर्षो में मैंने अपने जीवन में क्या क्या अनुभव प्राप्त किये, उनका दिग्दर्शन इन सस्मरणों में प्रालेखित हुआ है । मैं नहीं मानता कि मेरे ये अनुभव किसी अन्य व्यक्ति के लिए उपयोगी होंगे। मैंने केवल अपने ही रुग्ण मन को बहलाने के लिए ये संस्मरण लिख डालने का निरर्थक प्रयास किया है। मेरे जीवन के इन क्षुद्र ग्रनुभवों में किसी को कुछ ग्रहण करने योग्य कोई बात नहीं है। मेरे जोवन के प्रपंच का यह एक वर्णनात्मक भाग है । इससे पूर्व प्रकाशित कथा में जीवन के बाल्य काल के अनुभव प्रालेखित हुए हैं। उसके बाद मैंने जीवन के दूसरे चरण में प्रवेश किया। इस चरण में मुझे प्राभास होने लगा कि मेरा यह जीवन एक प्रपंचमय है । प्रपच का अर्थ सामान्य रुप से सब कोई समझते हैं । उसके गंभीर अर्थ की कई चर्चा में यहां नहीं करता। मैं धीरे धीरे समझने लगा कि मनुष्य का सारा जोवन प्रपंचमय है, इसलिए पूर्व प्रकाशित पुस्तिका के अनुरुप इसको केवल "जीवन कथा" नाम न देकर "जीवन प्रपंच कथा" नाम रखना मुझे उचित लगा । इस नाम का स्फुरण मुझे महाकवि सिद्धर्षि की बनाई हुई, “उपमितिभव प्रपंचाकथा " के नाम से हुआ | महाकवि सिद्धर्षि ने संसार के जीवों के भव अर्थात जीवन के प्रपंचात्मक अन्तर-बाहय भावों का स्वरुप चित्रित करने के लिए उस कथा का निर्माण किया । वह जैन साहित्य की एक अद्भुत रचना है। उसके पढ़ने से विचारशील मनुष्य को जीवों के शुभाशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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