________________
[११]
४. प्रावकाचार
ग्रंथकार इसे उपासकाचार कहते हैं। इसका प्रचलित नाम अमितगति श्रावकाचार है । वतं. मान में भिन्न-भिन्न प्राचार्यों द्वारा निर्मित कई दशक श्रावकाचार सम्बन्धी अंथ उपलब्ध होते हैं।
प्राचार्य सोमदेव के पश्चात् संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् आचार्य अमितगति हुए हैं। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है । प्रावक धर्म पर भी "उपासकाचार" नामक ग्रन्थ बनाया। इसमें १५ परिच्छेद हैं । इसमें प्रावक धर्म का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में धर्म का माहात्म्य, दूसरे में मिथ्यात्व की अहितकारिता तथा सम्यक्त्व की हितकारिता, तीसरे में सप्त तत्व, चतुर्थ में आत्मा को सिद्धि तथा ईश्वर सृष्टि कर्तृत्व का खण्डन प्ररूपित हैं । अन्तिम तीन परिच्छेदों में क्रमशः शोल, १२ तप तथा १२ भावनाएं वरिणत हैं । मध्य के परिच्छेदों में रात्रि भोजन, अनर्थदण्ड, अभक्ष्य भोजन, तीन शल्य, दान, पूजा तथा सामायिकादि षट् आवश्यकों का वर्णन है।
__ यह देखकर आश्चर्य होता है कि श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन एक ही परिच्छेद में किया गया है और श्रावक धर्म के प्राणभूत ११ प्रतिमाओं के वर्णन को तो एक स्वतन्त्र परिच्छेद की भी मावश्यकता नहीं समझी है । मात्र ११ श्लोकों में ही बहुत साधारण ढंग से उनका स्वरूप कहा गया है। स्वामी समन्तभद्र ने भी एक-एक श्लोक द्वारा ही एक-एक प्रतिमा का वर्णन किया है, पर यह सूत्रात्मक होते हुए भी बहुत विशद और गम्भीर है । प्रतिमाओं के नामोल्लेखन मात्र करने का प्रारोप सोमदेव पर भी लागू है । उन्होने भी अपने यशस्तिलकचम्पुगत उपासकाध्ययन में प्रतिमाओं का नामोल्लेख मात्र किया है। इन्होंने प्रतिमाओं का वर्णन क्यों नहीं किया, यह विचारणीय है।
अमितगति ने ७ व्यसन का वर्णन यद्यपि ४६ श्लोकों में किया है, पर बहुत बाद में। यहाँ तक कि १२ व्रत, समाधिमरण व ११ प्रतिमाओं का वर्णन करने के पश्चात् स्फुट विषयों का वर्णन करते हुए ७ व्यसनों का वर्णन किया।
अमितगति ने गुरणब्रत और शिक्षानतों के नामों में उमास्वामि का और स्वरूप वर्णन करने में सोमदेव का अनुसरण किया है । पूजन के वर्णन में देवसेन का अनुकरण करते हुए भी अनेक ज्ञातव्य बातें कही हैं । निदान के प्रास्त प्रप्रशस्त भेद उपवास की विविधता, आवश्यकों में स्थान, आसन, मुद्रा, काल आदि का वर्णन अमितगति के प्रावकाचार की विशेषताएं हैं । यदि संक्षेप में कहा जाए तो पूर्ववर्ती श्रावकाचारों का दोहन और उनमें नहीं कहे गए विषयों का प्रतिपादन करना ही भाचार्य अमितगति का लक्ष्य रहा है।
१. उपासकाचार प्रशस्ति लोक ७ से ९