Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र
इस उल्लेख के पश्चात् मम्मट ने काव्यप्रकाश की स्वोपज्ञवृत्ति (प्राय: ईस्वी ११००) में द्वितीय कारिका की टीका करते हुए लिखा है :- “आदित्यादेर्मयूरादिनामिवानर्थनिवारणं"; इससे मयूर ने जो सूर्यशतक रचकर अपने कुष्ठ रोग का निवारण किया था वह कथा तो परिलक्षित है ही, साथ ही ‘आदि शब्द से ऐसी अन्य भी चमत्कारिक घटनाएँ-जैसे बाण ने मयूर को स्पर्धा में चंडीशतक का प्रणयन करके अपने छेदे हुए अंग पुन: प्राप्त किए-वह भी अनुलक्षित है, ऐसा प्रतीत होता है । इसका सूचितार्थ यह है कि ईस्वी ११०० के पूर्व मयूर-बाण सम्बद्ध प्रसिद्ध दन्तकथाएँ प्रचलित हो चुकी थीं।
अब इस बीच निर्ग्रन्थ-दर्शन का महत्त्व दिखाने के लिए मानतुंगाचार्य को लाना ही बाकी रह जाता था । वह त्रुटि आचार्य प्रभाचन्द्र ने दूर कर दी । “मानतुंगचरित' के प्रान्त-पूर्व की कारिका में कर्ता ने इस प्रबन्ध की रचना कैसे हुई, यह बताते हुए लिखा है कि “श्रुत्वा कुत्रापि किंचिद् गृहीतमिह मया सम्प्रदायं च लब्ध्वा' अर्थात् लिखते समय कुछ इधर-उधरका सुना हुआ और कुछ सम्प्रदाय में प्रचलित मौखिक अनश्रति (और शायद कछ लिखित इतिवत्त ?) का आधार लिया गया था । प्रभाचन्द्र के सामने बाण-मयूर की प्रतिद्वन्द्विता से सम्बद्ध बाह्मण पंडितों द्वारा गढ़ी गई कथा मौजूद थी ही और इस तरफ निर्ग्रन्थों में भक्तामर भी एक अपूर्व, अति प्रसिद्ध एवं पुरातन रचना थी, जिसके कर्ता मानतुंगाचार्य थे इतना तो ज़ाहिर था ही; पर वह कहाँ हुए थे, कब हुए थे, इस विषय से सम्बद्ध कोई जानकारी नहीं थी । दूसरी ओर चमत्कारी घटना के सर्जन के लिए कुछ प्रेरक सामग्री स्तोत्र में ही पड़ी थी । विशेषरूप से स्तोत्र के ४२वें (दिगम्बर ४६वें) निम्न उठेंकित पद्य में श्रृंखलाबंधन का छेदन जिनेन्द्र के नामकीर्तन से होता है, ऐसा कहा गया है, जो केवल भक्त-हृदय की शब्दबद्ध की हुई भावना ही है, यथा :
आपादकण्ठमुरु श्रृङ्खलवेष्टिताङ्गा
गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजङ्घाः । त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्त:
सद्य: स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ।। विन्टरनित्स् महोदय का कहना ठीक ही है कि इस पद्य को आधार बनाकर चमत्कार को कथा में चरितार्थ किया गया है । ऐसा लगता है कि मयूर के कुष्ठ-रोग-निवारण की दन्तकथा भी सूर्यशतक के छठे पद्य को लेकर ही बनी होगी । शायद वही घटना प्रभाचन्द्र द्वारा कही गई मानतुंग-कथा की प्रेरणा एवं आदर्श रही होगी । इन परिस्थितियों में स्वयं प्रभाचन्द्र ने भक्तामर सम्बद्ध चमत्कारपूर्ण कथा न भी रची हो तो उनके कुछ समय पूर्व किसी मुनि ने जिनशासन की महिमा बढ़ाने के लिए यह प्रयत्न किया होगा, ऐसा साधारण तर्क हो सकता है ।
__प्रभाचन्द्र के बाद मेरुतुंगाचार्य (ई० स० १३०५) ने तो इस सम्बन्ध में अति संक्षिप्त और समास-रूप में ही विवरण दिया है । इसलिए उनका कथन अधिक विगतों से भरा हुआ नहीं है । हो सकता है, उनके सामने प्रभावकचरित न भी रहा हो; क्योंकि उनकी कथा में बाण-मयूर-मानतुंग एक साथ होते हुए भी उन्होंने चमत्कार का घटना स्थल वाराणसी की जगह उज्जयिनी बताया है और राजा
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