Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 75
________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र किया है, इस पर पीछे गवेषणा कुछ हद तक हो चुकी है । इसमें कोई संदेह नहीं, इसके कर्ता कोई पश्चात्कालीन दिगम्बर विद्वान् ही हैं । चार शेष प्रातिहार्यों से सम्बद्ध पद्यों को मंत्रमय होने के कारण गायब कर दिया गया है, ऐसी किंवदन्तियाँ अनपढ़-कमपढ़ भावुक नर-नारी, श्रद्धालु व्यापारी, मन्त्र-तन्त्र में आस्था रखने वाले एवं निर्ग्रन्थ सिद्धान्त में उसकी विसंगति न देख पाने वालों के लिए ठीक हो सकती है; अर्हत्प्रवचन पर अटल श्रद्धा, आत्मा की स्वाधीनता और शक्ति पर विश्वास रखने वाले मोक्षार्थी मुनिजन एवं उपासकों के लिए तो निहायत निकम्मा ही हो सकती है । भक्तामर के परिप्रेक्ष्य में अष्ट-महाप्रातिहार्यों के क्रम को लेकर जो कुछ विचार श्वेताम्बर विद्वानों ने किया है, उस पर कुछ ऊहापोह यहाँ किया जाता है । प्रा० कापड़िया ने यहाँ अपने ग्रन्थ की संस्कृत भूमिका में इस प्रकार लिखा है । “यदि समस्तानां प्रातिहार्याणां वर्णनमभीष्टमभविष्यत् स्तोत्रकर्तृणां तर्हि किं चामर-वर्णस्थाने आसन वर्णनात्मकं पद्यं ते व्यरचयिष्यम् ? दिगम्बर सूचिताधिक पद्यस्वीकारे तु व्यतिक्रमो विशेषतो दरीदृश्यते, यतः तदा च क्रमो यथा- (१) अशोकवृक्षः, (२) सिंहासनम्, (३) चामरम्, (४) छत्रम्, (५) दुन्दुभिः, (६) पुष्पवृष्टिः, (७) भामण्डल, (८) दिव्यध्वनि:६१ ।" और फिर वहाँ अपनी गुजराती “प्रस्तावना" में आप लिखते हैं : “विशेषकर यहाँ यह भी ध्यान में लेने लायक हकीकत है कि इन चार प्रातिहार्यों का वर्णन सिंहासन के वर्णन के बाद क्रमपूर्वक नहीं है, क्योंकि क्रमानुसार तो चामर का वर्णन सिंहासन के वर्णन के बाद आना चाहिए । इससे विपरीत किया जाय तो व्यतिक्रम हो जाने का विशेष अवकाश दिखाई देता है, क्योंकि इसमें निम्नानुसार प्रातिहार्यों का वर्णन है : (१) अशोकवृक्ष, (२) सिंहासन, (३) चामर, (४) छत्र, (५) दुन्दुभि, (६) पुष्पवृष्टि, (७) भामण्डल, और (८) दिव्यध्वनि । इससे यह सवाल खड़ा हो जाता है कि जिन कविराज को आठों ही प्रातिहार्यों का वर्णन करना हो वे क्रमश: न करते हुए जो ठीक लगे, ऐसी रीति से क्यों किये ?६२'" पं० धीरजलाल शाह का कुछ ऐसा ही कहना है । "भक्तामरस्तोत्र में अशोकवृक्ष, आसन, चामर तथा छत्र का वर्णन किया हुआ है, और शेष प्रातिहार्यों का वर्णन नहीं किया है, इससे रस में क्षति नहीं आती है । कविजन सर्वदा क्रम का ही अनुसरण करें, ऐसा नहीं होता है । उनके मन में जो भव्य एवं उदात्त कल्पनाएँ उठकर आती हैं उसे वे वाणी में उभारते चलते हैं और इस में ही उसकी शोभा बनती है । यदि क्रम की बात करें तो इन चार पद्यों में भी इसका मूल क्रम नहीं है, कारण कि इसका मूलक्रम तो निम्न श्लोकों से सूचित होता है; वह इस प्रकार से है : अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिशामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।। इस क्रम-प्रमाण से तो प्रथम चामर का और बाद आसन का वर्णन करना अपेक्षित था, पर हमारे ऊपर कहे गये हिसाब से वह कवि-कल्पना पर निर्भर है६३ ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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