Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 120
________________ स्तोत्रकर्ता का सम्प्रदाय १०३ २) मानतुंगसूरि की मानी जानेवाली एक दूसरी कृति, भयहरस्तोत्र की उपलब्धि श्वेताम्बर में ही होती है एवं उस पर वृत्त्यादि साहित्य भी वहीं प्राप्त होता है; पर वह तथ्य भी सम्प्रदाय-विनिर्णय में पर्याप्त नहीं है । कुछ-कुछ दिगम्बर, यापनीय (और बौद्ध) रचनाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थ भण्डारों में मिल जाने मात्र से या वहाँ प्रचार में होने मात्र से कर्ता को श्वेताम्बर नहीं माना जा सकता । ३) प्राचीन एवं मध्यकालीन दिगम्बर पट्टावलियों में मानतुंग सूरि का कहीं भी जिक्र नहीं है । विरुद्ध पक्ष में श्वेताम्बर पट्टावलियों में और ऐसी रचनाओं में उनको स्थान मिला है । लेकिन इन .पट्टावलियों का कहाँ तक विश्वास हो सकता है वह भी जान लेना जरूरी है । प्राचीनतम पट्टावलियाँ, जैसे कि पर्युषणाकल्प की “स्थविरावली” (ईस्वी १००-५०३), देववाचक कृत नन्दिसूत्र की “स्थविरावली' (प्राय: ईस्वी पंचम शती मध्यभाग) और इन दोनों के कथनों को समास रूप में रखनेवाली अजितसिंह सूरि की पट्टावली (प्राय: ईस्वी १२वीं शताब्दी पूर्वार्ध) में मानतुंग का नाम न मिलने का स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि यदि वे औदिच्य परम्परा में हो भी गये हों तो पंचम शतक के बाद, और अवान्तर शाखाओं में से किसी में हुए होंगे, जिस कारण वज्री शाखा के पुरातन आचार्यों की क्रमावली में, एवं नन्दिसूत्र की वाचकों की सूची में उनको स्थान प्राप्त होना संभव नहीं हुआ । अञ्चलगच्छीय धर्मघोष सूरि का माना जाता ऋषिमंडलस्तव (प्राय: १३वीं शती का प्रथम चरण) व तपागच्छीय धर्मघोषसूरि के दुःषमाकाल-श्रमणसंघस्तव (प्राय: ईस्वी १२५०-१२७५ के बीच) के अन्तर्गत आर्य महागिरि (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) तक तो सिलसिलाबद्ध नाम दिये गये हैं । परन्तु बाद में ऊपर कथित दोनों प्राचीनतम स्थविरावलियों और आवश्यकनियुक्ति वगैरह में मिलते आर्य रक्षित, रेवतिमित्र, आर्य नागहस्ति, सत्यमित्र और तत्पश्चात् के हारिल (वाचक हरिगुप्त, प्राय: ईस्वी ४७५-५२९) और दूसरे में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण (प्राय: ईस्वी ५४५-५९४) जैसे नाम गिनती में लिए गये हैं, किन्तु वहाँ भी मानतुंगाचार्य का कोई उल्लेख नहीं । ___ मानतुंगसूरि के समय का, और उनके माने गये गुरु का सर्वप्रथम उल्लेख प्रभावकचरित के पश्चात् गुणाकरसूरि की भक्तामरवृत्ति (ईस्वी १३७०) और ईस्वी १५वीं के प्रारम्भ से लेकर १७वीं-१८वीं शताब्दी की तपागच्छीय गुर्वावलियों और बहुधा उनका अनुसरण करने वाली १६वीं-१७वीं-१८वीं शतक की अन्य गच्छों की पट्टावलियों में मिलता है । तपागच्छीय मुनिसुंदरसूरि की गुर्वावली और उनके गुरु के सतीर्थ्य गुणरत्नसूरि के गुरुपर्वक्रमवर्णन (वि० सं० १४६६ / ईस्वी १४१०) में कहा गया है कि आर्य वज्र के शिष्य वज्रसेन और उनके शिष्य, चन्द्रकुल के स्थापक, चन्द्रसूरि हुए । तत्पश्चात् चन्द्रकुल के चन्द्रमा १७वें आचार्य सामन्तभद्र हुए और उनके बाद वृद्ध देवसूरि हुए, जिन्होंने कोरण्टक (कोरटा, राजस्थान) में नाहड मंत्री द्वारा विनिर्मित चैत्य की प्रतिष्ठा की । तत्पश्चात् प्रद्योतनसूरि, और उनके बाद मानदेवसूरि हुए जिनके पास पद्मा, जया, विजया और अपराजिता नामक देवियाँ आया-जाया करती थीं तथा जिन्होंने नड्डूलपुर (नाडोल) में रहते हुए शाकम्भरीपुर में (ग्रन्थातरेण तक्षशिला में) लघुशान्तिस्तव की रचना करके महामारी के उपद्रव को शान्त किया था । उनके पश्चात् २१वें आचार्य हुए “मानतुंग' जिन्होंने भक्तामरस्तोत्र के प्रभाव से, बाण-मयूर की विद्या से चकित हुए “भूप" को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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