Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 122
________________ स्तोत्रकर्ता का सम्प्रदाय १०५ दरमियान कतिपय आचार्यों का समय गुर्वावलीकारों ने दिया भी है तो वह संगत नहीं होता, जैसे तपागच्छ गुर्वावलीकार आचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरि जी ने आचार्य श्री वज्रसेन सूरि का स्वर्गवास समय जिन-निर्वाण से ६२० में लिखा है, जो विक्रम वर्षों की गणनानुसार १५० में पड़ता है । तथा वज्रसेन से चतुर्थ पुरुष श्री वृद्धदेवसूरि जी द्वारा विक्रम संवत् १२५ में कोरण्ट नगर में प्रतिष्ठा होना बताया है, इसी प्रकार १८वे पट्टधर प्रद्योतनसूरि के बाद श्री मानतुंगसूरि जो बाण और मयूर के समकालीन थे, उनको २०वाँ पट्टगुरु माना है, मयूर का आश्रयदाता कन्नौज का राजा श्रीहर्ष था जिसका समय विक्रम की सातवीं शती का उत्तरार्द्ध था, यह समय श्री मानतुंगसूरि के पट्टगुरु मानदेवसूरि के और मानतुंगसूरि के पट्टधर वीरसूरि के साथ संगत नहीं होता, क्योंकि मानतुंगसूरि के बाद के पट्टधर श्री वीरसूरि का समय गुर्वावलीकार श्री मुनिसुन्दर जीने निम्नोक्त श्लोक में प्रकट किया है - "जज्ञे चैत्ये प्रतिष्ठा कृन्नमेनागिपुरे नृपात् । त्रिभिर्वर्षशतैः ३०० किंचिदधिकै वीर सूरिराट् ।।३७ ।। आचार्य मानतुंग को कवि बाण मयूर के समकालीन मानना और मानतुंग के उत्तराधिकारी वीरसूरि का समय विक्रम वर्ष ३०० से कुछ अधिक वर्ष मानना युक्ति संगत नहीं है, वीरसूरि के बाद के आचार्य जयदेव, देवानन्द विक्रम और नरसिंह इन चार आचार्यों के समय की चर्चा गुर्वावली तथा पट्टावली में नहीं मिलती"५ । लेकिन इतना कहने के बाद कल्याणविजय जी ने गुर्वावलीकार द्वारा उल्लिखित आचार्यों के सत्ता समय की विसंगति का समन्वय करने का जो जीतोड़ यत्न किया है, वह सराहनीय होते हुए भी अप्रतीतिकर ही दिखाई देता है । मानतुंग का समय खींचकर नीचे लाने के लिए वी० नि० संवत्सर को विक्रम संवत् मानने तक तो ठीक है, परन्तु “प्रद्योतन, मानदेव, मानतुंग और वीरसूरि इन चार आचार्यों का सत्ता-समय ३०० वर्ष के लगभग मान लिया जाय तो एकत्रित समयांक ६७५ तक पहुँचेगा और इस प्रकार से मानतुंगसूरि बाण, मयूर और राजा हर्ष के समय में विद्यमान हो सकते हैं" कहना तो अजीब प्रकार की, अव्यावहारिक एवं असंभवित गिनती का ही द्योतक माना जायेगा । उत्तर-मध्यकालीन पट्टावलीकार, चाहे वे श्वेताम्बर हों या दिगम्बर, अपने गच्छ के पूर्व की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए उनके पास कोई विश्वस्त सूचना नहीं थी, न गुरुक्रम का कोई सही सिलसिला बतानेवाला प्रमाण । इन सबों ने ज्यादातर कल्पना से ही काम चलाया है । प्राचीन श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्यों के समय-निर्धारण में पट्टावलियों को प्रमाण मानकर चलने वाले सभी विद्वान् खुद धोखे में रहे हैं और उनके कथन पर विश्वास करने वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थेतर विद्वान् संसार को गुमराह करने, ऐतिहासिक विपर्यासों का ढेर रच देने और आज तक गलत निर्णयों के अन्धकारमय चक्करों में फँसकर (और औरों को फँसाकर) इतिहास को ओझल कर देने के अतिरिक्त और कुछ भी हासिल नहीं कर पाये हैं । ___अब हम कुछ मुद्दे पेश करेंगे जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जा सकता है और जो विशेषकर स्तोत्र के आन्तरिक तथ्यों एवं लक्षणों से सबन्धित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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