Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 121
________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र प्रबोधित किया था, भयहरस्तोत्र से फणिराज ( धरणेन्द्र) को आकर्षित किया था तथा भत्तिब्भर जैसे नमस्कार स्तव बनाये थे; और उनके बाद आये हुए २२वें आचार्य वीरसूरि ने नागपुर में नृप संवत् (वि० सं० ३०० / ई० स० २४४ ) में चैत्य प्रतिष्ठा की थी । इस गिनती के आधार पर मानतुंगसूरि का समय प्रायः ईस्वी २००-२४४ माना गया है । १०४ पट्टावलीकारों की इस कैफियत में घोरातिघोर एवं विपुल संख्या में कालातिक्रम के दृष्टांत हैं ही, पर इसके अलावा अनेक बातें वास्तविक इतिहास से विपरीत आ गई हैं । पहली बात तो यह है कि वज्रसेन के जिन तीन-चार शिष्यों से चार शाखाओं में प्रवाह्यमान होने का उल्लेख पर्युषणाकल्प की " स्थविरावली" में प्राप्त होता है, वहाँ कहीं भी चान्द्रशाखा या चन्द्रकुल का जिक्र नहीं है और प्राचीन माने गये आचार्य चन्द्र के पश्चात् महावीर की परिपाटी में १७ वें गद्दीधर का नाम 'सामन्तभद्र' दिया गया है, यह तो महान् दार्शनिक दिगम्बराचार्य स्वामी समन्तभद्र को ज़बरदस्ती से श्वेताम्बर बना देने का उद्यम मात्र है । उनके बाद जो देवसूरि के होने की बात की है और कोरण्टक में नागभट मन्त्री द्वारा निर्मित चैत्य की बात की है, वह तो प्राकमध्यकाल में, प्रतीहारयुग में, घटी हुई घटना को छह सौ साल और प्राचीन ठहरा दिया है । यह देवसूरि प्रबन्धों के अनुसार ऊपर कथित कोरण्ट के चैत्य चैत्यवासी मुनि थे और उनका समय नवम - दशम शतक के पूर्व का नहीं । उनके बाद प्रद्योतनसूरि हुए ऐसा कहा है; लेकिन उस सूरि का काल दशम शतक उत्तरार्ध से पहले नहीं हो सकता । उनके नाम से चले हुए गच्छ से सम्बद्ध ११वीं शताब्दी उत्तरार्ध के कुछ लेख मिले हैं । ये आचार्य पुरातन नहीं हैं। अब उनके बाद आये मानदेवसूरि, जिनका बनाया हुआ लघुशान्तिस्तोत्र आज उपलब्ध है; वह खुलेआम मान्त्रिक होने के अतिरिक्त शैली से तो मध्यकालीन ही है; वह ११वीं शती उत्तरार्ध से प्राचीन नहीं । तदतिरिक्त नड्डूल एवं शाकंभरी (सांभर ) भी प्राक् - प्रतीहारकाल से ज्यादा प्राचीन नहीं है । आश्चर्य है, ईस्वी तीसरी शती में माने गये मानदेव के बाद जो मानतुंगसूरि हुए उनको, साथ ही सप्तम शतक पूर्वार्ध में हो गये बाण - मयूर के समकालीन भी माना गया ! दूसरी ओर उनके शिष्य वीरसूरि का समय वि० सं० ३०० के करीब माना गया तब तो भ्रान्ति की पराकाष्ठा ही हो जाती है । इतना ही नहीं, पिछले तीनों आचार्यों के नाम पट्टावलियों में आगे चलकर दुहराये हैं, जिस वक्त मध्यकाल प्रवर्तमान हो गया था और अन्यथा वही तो इन सबका वास्तविक काल है । दूसरी ओर गुर्वावलिकार से १३३ साल पूर्व हो गये प्रभावकचरितकार ने भक्तामरकार के गुरु का नाम जिनसिंह बताया है । इससे गड़बड़ और बढ़ जाती है । मुनिवर कल्याणविजय का एक अवलोकन, जो इस मौके पर हमारे सामने है, उपयुक्त होने के कारण यहाँ प्रस्तुत करना चाहेंगे । “वास्तव में वज्रसेनसूरि के बाद के श्रीचन्द्रसूरि से लेकर विमलचन्द्रसूरि तक के २० आचार्यों का सत्ता- समय अन्धकारावृत्त है । बीच का यह समय चैत्यवासियों के साम्राज्य का समय था । उग्र वैहारिक संविज्ञ श्रमणों की संख्या परिमित थी, तब शिथिलाचारी तथा चैत्यवासियों के अड्डे सर्वत्र लगे हुए थे । इस परिस्थिति में वैहारिक श्रमणों के हाथ में कालगणना पद्धति नहीं रही । इसी कारण से वज्रसेन के बाद और उद्योतन सूरि के पहले के पट्टधरों का समय व्यवस्थित नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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