Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 124
________________ स्तोत्रकर्ता का सम्प्रदाय १०७ आवश्यक समझते थे ।) यह मुद्दा भी प्रस्तुत सन्दर्भ में उपयुक्त है । ५) चामर प्रातिहार्य के सम्बन्ध में दिगम्बर मान्यता में चामरों प्राय: दो से अधिक संख्या में माना गया है । (देखिए तालिका क्रमांक ६) । कुमुदचन्द्र ने चामरों के "ओघ" (समूह) की बात की है; तो जिनसेन के आदिपुराण में चामरालि (चामरावली) एवं ६४ चामरों की बात कही गई है । भक्तामर में बहुलता-दर्शक कोई इशारा न होने से वहाँ “चामरयुग्म' ही अपेक्षित मानना ठीक होगा और यह हकीकत, स्तोत्रकार मूलत: उस प्रणाली का अनुकरण कर रहा हो, ऐसा आभास कराती है । दो चामरों की मान्यता वाली परिपाटी दिगम्बर नहीं है । ६) अतिशयों की वर्णना के पश्चात् स्तोत्र के ३२वें (दिगम्बर पाठ के ३६३) पद्य में जिनेन्द्र का कमलविहार उल्लिखित है । दिगम्बर सम्प्रदाय में तिलोयपण्णत्ती और समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा आदि प्रमाण में प्राचीन रचनाओं में जिन का नभोविहार होना बताया है', और विशेष में समन्तभद्र के बृहद्स्वयम्भूस्तोत्र में जिन पद्मप्रभ की स्तुति में एक ही पद्य में दोनों प्रकार के विहार (सन्दर्भानुसार) सूचित हैं । भक्तामर में 'नभोयान' का उल्लेख है ही नहीं; वहाँ वह बात कहने के लिए चार पदयुक्त पद्य में कहीं न कहीं अवकाश होते हुए भी । यदि स्तोत्रकार दिगम्बर थे तो इस महत्त्वपूर्ण बात का जिक्र क्यों नहीं किये ? ७) क्रियाकलाप-टीका के कर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र (कविकर्मकाल प्राय: ईस्वी १०२०-१०६०) ने जो कुछ कहा है उस पर यहाँ अब विचार करना चाहिए । उनका कहना था कि मानतुंग नाम के एक श्वेताम्बर महाकवि थे जो व्याधिग्रस्त हो गये थे और एक निर्ग्रन्थाचार्य ने उनको रोग से मुक्त कराया। तब वह उनके शिष्य बन गये और पूछने लगे कि भगवन् ! अब मैं क्या करूं ? गुरु ने कहा स्तोत्र बनाना इष्ट है ! और मानतुंग ने परमात्मा का गुण गाने वाले भक्तामर शब्द से आरम्भ होने वाली स्तुति रच डाली । यथा : "मानतुङ्गनामा सिताम्बरो महाकवि: निर्ग्रन्थाचार्यवर्यैरपनीतमहाव्याधिः प्रतिपन्ननिर्ग्रन्थमार्गो भगवन् ? किं क्रियतामिति ब्रुवाणो भगवतापरमात्मनो गुणगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादिस्तुतिमाह ।" प्रभाचन्द्राचार्य ने मानतुंग को, वे असल में श्वेताम्बर थे और संग-संग महाकवि भी थे, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा है । मानतुंग महाकवि थे ऐसी तसल्ली करानेवाली तो भक्तामर (एवं भयहर) के सिवा और कोई कृति नज़र नहीं आती, न तो कहीं ऐसा कोई उल्लेख ही मिलता है । ऐसी स्थिति में इस कथा को तथ्यपूर्ण माना ही जाय तो दिगम्बर दन्तकथा की दृष्टि से भी भक्तामर की रचना, मानतुंग जब वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आमान्या में रहे होंगे, तभी की हो सकती है । दूसरी बात यह है कि रोग दूर करना-भैषज्य से या मन्त्रप्रयोग से—वह धंधा निर्ग्रन्थ मुनि के कर्तव्यों में, चर्या में माना नहीं गया ! श्वेताम्बरों के लिए तो इसका आगमिक निषेध है ही, पर दिगम्बर मुनि की परिचर्या में भी इन प्रवृत्तियों को स्वीकृत आचार के विरुद्ध एवं सदोष, शिथिलाचार ही माना जायेगा | मानतुंग का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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