Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 89
________________ ७२ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र शब्द मनीषि का शब्द है; आर्षद्रष्टा का शब्द है । कवि को आम्र शब्द मालूम नहीं था इसलिए चूत शब्द प्रयोजित किया ऐसा नहीं है । कवि की वाणी से जो शब्द अनायास निकल पड़ा है और उनकी आत्मा की अतल गहराई में से आया है, सच्चे आराधकों को इसी मूल शब्द को ही वफ़ादारीपूर्वक लेना चाहिए । और शब्दपरक घृणा से चित्त को निवृत्त करके उत्तम अध्यवसाय में रमण करना चाहिए। वैदिकों के गायत्री मन्त्र में भी 'प्रचोदयात्' ऐसा एक शब्द आता है, जो आखिर के कुछ सदियों से अश्लील या बीभत्स शब्द के रूप में भी प्रयोग में है । फिर भी उस मंत्र में अब तक किसी पंडित ने फेरफार नहीं किया है । ऐसी अनधिकार चेष्टा कोई भी व्यक्ति करता है तो उसे मान लेना संभव नहीं ।" हम इस मंतव्य से सर्वथा सहमत हैं । सभी श्वेताम्बर वृत्तिकारों ने 'चूत' शब्द ही ग्रहण किया है और कालिदास जैसे महान् कविवर ने अनेक स्थानों पर 'चूत' शब्द का प्रयोग किया है । ___ इस स्तोत्र की गुणवत्ता का विहंगावलोकन डा० ज्योतिप्रसाद जैन के शब्दों में यहाँ रखकर वह कैसे उत्पन्न हुई उस पर विचार करेंगे । “इस मनोमुग्धकारी स्तोत्ररत्न में परिष्कृत एवं सहजगम्य भाषाप्रयोग, साहित्यिक-सुषमा, रचना की चारुता, निर्दोष काव्य-कला, उपयुक्त शब्दालङ्कारों एवं अर्थालंकारों की विच्छित्ति दर्शनीय है ....” । “यद्यपि मानतुंग ने क्लासिकल (classical) संस्कृत काव्य की अलंकृत शैली में रचना की है, तथापि उन्होंने स्वयं को ऐसी दुरूह काल्पनिक उड़ानों एवं शब्दिक प्रयोगों से बचाया है जिनमें काव्य का रस अलंकारों के जाल में ओझल हो जाता है।" भक्तामर के देहसर्जन में प्रयुक्त अलंकारों से सम्बद्ध विचार ज्योतिप्रसाद जी से ४५ साल पूर्व, प्रा० कापड़िया ने अपनी गुजराती में लिखी प्रस्तावना के अन्तर्गत “स्तोत्र-युगलनुं तुलनात्मक पर्यालोचन" विभाग में किया है । इसमें कल्याणमन्दिरस्तोत्र (जिसको वे सिद्धसेन दिवाकर विरचित मानते थे) के हर पद्य के संग भक्तामर के पद्यों की तुलना करते समय दोनों स्तोत्रों के आलंकारिक पहलुओं पर पर्याप्त विचार किया गया है । वहाँ उन्होंने संस्कृत साहित्य की सुविश्रुत कृतियाँ, जैसे कालिदास के कुमारसम्भव, रघुवंश, अभिज्ञान-शाकुन्तल और मालविकाग्निमित्र के पद्य एवं भर्तृहरिकृत नीतिशतक, माघ के शिशुपालवध, अमरूशतक, पुष्पदंत कृत शिवमहिम्नस्तोत्र, इत्यादि के समानालंकृत पद्य के साथ तुलना भी पेश की है । तदतिरिक्त स्तोत्रगत पदलालित्य, पदमाधुर्य, अनुप्रास की रम्यता, प्रसाद, कल्पना और चमत्कृति पर चर्चा करने के साथ ही वहाँ प्रयुक्त अलंकारों का भी जिक्र किया है, जैसे कि प्रतिवस्तूपमा, अनुमान, काव्यलिंग, व्यतिरेक, निन्दा-स्तुति, दृष्टान्त, शब्दानुप्रास इत्यादि ।। पं० अमृतलाल शास्त्री (१९६९) ने भी भक्तामरस्तोत्र की अलंकार-विच्छित्ति के विवरण में एक संक्षिप्त कंडिका में जो कुछ कहा है उसमें बहुत कुछ बता दिया है । उनके कथनानुसार स्तोत्र में शब्दालंकार के अन्तर्गत छेकानुप्रास एवं वृत्यानुप्रास की विच्छित्ति मनोहारिणी है । अर्थालंकारों में विषम, व्यतिरेक, पूर्णोपमा, रूपक, फलोत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान, क्वचित् श्लेष, अतिशयोक्ति, आक्षेप, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा और समासोक्ति आदि प्रयुक्त हैं; पर सर्वत्र जटिलता एवं दुर्बोधता का परिहार सहज रूप से दिखाई देता है। (ज्योतिप्रसादजी की ईस विषय पर हुइ साधारण चर्चा का आधार अमृतलाल शास्त्री का उपर्युक्त लेखन रहा हो ऐसा आभास मिलता है ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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