Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 77
________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र ३२वें में कमलों का स्थापित होना मानते हैं; अर्थात् यदि इन्हें प्रातिहार्य लेना होता तो २७वें काव्य में अशोकवृक्ष का वर्णन किये जाने के बाद सुरपुष्पवृष्टि और दिव्यध्वनि नाम के प्रातिहार्य का वर्णन करना छोड़ नहीं देते । चामर का वर्णन करने के पश्चात् भामण्डल और दुन्दुभि के प्रातिहार्य छोड़कर छत्र नामक प्रातिहार्य, जो आखिरी प्रातिहार्य के रूप में है, उसका वर्णन नहीं करते; इतना ही नहीं, देशना देने के लिए पधारते समय श्री जिनेश्वरदेव के चरण-कमल के नीचे देवता जिन पद्यों की स्थापना करते हैं, उसका वर्णन वह प्रातिहार्य न होने से, प्रातिहार्य के विभाग में नहीं करते, क्योंकि प्रातिहार्य की संख्या तथा क्रम इस प्रकार है : अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनिश्शामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।। इससे स्पष्टतया समझ में आ जायेगा कि भक्तामर में किया गया वर्णन केवल प्रातिहार्यों का नहीं है; एवं प्रातिहार्यों का वर्णन करना चाहा था और चार प्रातिहार्यों का ही वर्णन उपलब्ध स्तोत्र में दिखाई देता है, इसलिए रह जाने वाले चार प्रातिहार्यों के वर्णन वाले काव्य लुप्त हैं या किसी ने छिपा दिया है, ऐसा मानना असंगत है । प्रथम तो आठ के वर्णन में चार ही रहा और शेष का वर्णन लुप्त हो गया या छिपा दिया गया था ऐसा मानना विचक्षणों को ग्राह्य हो सके ऐसा नहीं है [:] इसलिए श्री मानतुंगसूरि ने चार प्रातिहार्य और कमल स्थापना का वर्णन धर्मोपदेश की जगत् के जीवों को स्पृहा करने योग्य समृद्धि की सत्ता दर्शाने के लिए किया है और इसलिए ३३वें काव्य में वे अशोकादिक का वर्णन करने के बाद उपसंहार में 'इत्थं यथा तव विभूति:' ऐसा कहकर विभूति वाले प्रातिहार्यों एवं सूर्यप्रभा के अन्तर का विषय लेने से प्रभा अर्थात् कान्तिमान वस्तुओं का [.] कान्ति की अतिशयता के वर्णन से पूर्व [,] किया गया है ऐसा स्पष्ट रूप से ध्वनि करते हैं । सुरपुष्पवृष्टि वगैरह प्रभा अर्थात् कान्ति के अतिशयवाली वस्तु [के रूप में] न गिनाये वह स्पष्ट ही है । भामंडल में रही हुई कान्ति [] संसार में विभूति रूप माने जाने वाले पदार्थों से मिलती हुई न होने से अथवा श्री जिनेश्वर महाराज के शरीर के तेज का उसमें प्रतिबिम्बत्व होने से वह भामंडल की स्वयं विभूति रूप में मनानेवाला कान्तिमान् [प्रातिहार्यों] में गणना न करके अशोकादिक कान्तिमानों की गणना की गई हो ऐसा ३३वाँ काव्य से भी स्पष्ट होता है [;] अर्थात् भक्तामर स्तोत्र के ४४ काव्य असल से हैं, ऐसा मानना श्रेयस्कर है। तदतिरिक्त विभूति के वर्णन में उपसंहार वाले काव्य में यदि आठ प्रातिहार्यों का वर्णन होता तो प्रातिहार्यों के रूप में ही इसका उपसंहार होना चाहिए था और इसलिए यदि 'सत्प्रातिहार्य निचयस्तवयादृगस्ति' ऐसा कुछ आद्य पद्यवाला काव्य होता, जो नहीं है इसलिए भी कुछ ही प्रातिहार्यरूप विभति के वर्णन वाले काव्यों से युक्त चवालीस काव्यों का ही भक्तामरस्तोत्र होता, ऐसा मानना युक्तिसंगत है ।" आगमोद्धारक सूरिवर सागरानन्दजी की दी गई कोई-कोई युक्तियाँ प्रतीतिजनक हैं, पर अधिकतर तथ्य-सम्मत नहीं दिखाई देतीं । सूरिप्रवर की कहीं-कहीं अति प्रलम्बित, पेचीली एवं घुमावदार, पुराने ढंग की, कुछ हद तक जैन मुनि-सहज गुजराती वाक्य-रचना को हिन्दी में सरलतापूर्वक रखना मुश्किल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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