Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र ३५. विशेषावश्यकभाष्य, (द्वितीयो भाग), लालभाई दलपतभाई श्रेणि, क्रमांक १४, अमदावाद १९६८, पृ० ३४१. ३६. देखिए चउपन्नमहापुरिसचरिय, सं० पं० अमृतलाल मोहनलाल भोजक, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रन्थाङ्क ३, वाराणसी १९६१, पृ० ३०३-३०४, आर्या ४५२-४५४. ३७. पउमचरिय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद, ग्रन्थाङ्क ६, (मूल) संपादक हर्रमन्न यकॉबी, संशोधक एवं पुन: संपादन मुनि पुण्यविजय, वाराणसी १९६२, २.२५१ तथा पृ० ११-१२. ३८. वही ग्रन्थ, पृ० १२. ३९. वसुदेव हिण्डी, (प्रथम खण्ड), श्री आत्मानन्द-जैनग्रन्थरत्नमाला, रत्न ८०, सं० मुनि चतुरविजय एवं मुनि पुण्यविजय, भावनगर १९३०, पृ० ३४१. ४०. सं० मुनि श्री पुण्यविजयजी, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रन्थाङ्क १०, वाराणसी-अमदावाद १९६६, पृ० ४. ४१. तिलोयपण्णत्ती, सं० आ० ने० उपाध्ये - हिरालाल जैन, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, क्रमांक १, भाग १, शोलापुर १९४३, पृ० २६४-२६५. ४२. वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क ९, सहारनपुर १९५०, पृ० ९-१०. ४३. देखिए उनका “देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण," जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई १९५६, पृ० ४८, पृ० ४२२. ४४. वही, पृ० ४२३. ४५. देखिए हुम्बज-श्रमण-सिद्धान्त पाठावलि, जयपुर १९८२, (“निर्वाण भक्ति'' अंतर्गत), पृ० १३९. ४६. वही, पृ० १४६-१४७. ४७. वहाँ भाग १, सं० आ० ने० उपाध्ये, सिंघि जैन शास्त्र विद्यापीठ, मुंबई १९५९, पृ० ९७. XL. U. P. Shah, "Evolution of Jaina Iconography and Symbolism," Aspects of Jaina Art, (Eds. U. P. Shah & M. A. Dhaky), Ahmedabad 1975), pp. 52, 54, 57, 58. ४९. कटारिया, “भक्तामर०," पृ० ३३८-३३९. ५०. वही, पृ० ७२. ५१. वस्तुतया पूरा स्थानकवासी सम्प्रदाय में इस स्तोत्र का ४८ पद्यवाला दिगंबर-मान्य पाठ ही प्रचलित है । ५२. ज्योतिप्रसाद जैन, “भक्तामर०," जैन-संदेश, शो० २९, पृ० २१९. ५३. वही, पृ० २२०. ५४. जै० सा० इ०, बम्बई १९५४, पृ० ४१३-४१४ ५५. देखिए उनका " नामकरण तथा पद्यप्रमाण," भक्तामर-रहस्य, मुंबई १९७१, पृ० ५१. ५६. कापडिया, ५७. कटारिया, जै० नि० र० परिशिष्ट, पृ० ४३८. ५८. मुनि दर्शनविजय, “दिगम्बर शास्त्र कैसे बने ? प्रकरण ११, आ० श्री मानतुंग सूरि," जै० स० प्र०, पु० २, अंक १०, १९३७, पृ० ५१७-५१८. ५९. हम उनके विचारों की समीक्षा हमारा ग्रन्थ श्रीबृहद् निर्ग्रन्थ स्तुतिमणिमंजूषा में कर रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154