Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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भक्तामर की पद्यसंख्या
लेकर महिमा रूप प्रशंसा नहीं कर सकते, वहाँ वह इष्ट नहीं है, ऐसा नहीं है । पूज्यपाद देवनन्दी ने समाधिशतक में ऐसी उपमा का आश्रय लेकर, दूसरे अर्थ में जिन को धाता आदि सब अभिधान घटित किया है, जिस पर यहाँ आगे अन्य सन्दर्भ में सोद्धरण विचार किया गया है ।
२) दिगम्बर सम्प्रदाय में तीर्थंकर के शरीर का सिंहासन से सम्बन्ध न हो ऐसा वहाँ तिलोयपण्णत्ती आदि शास्त्रों में, या प्राचीन चरितों में तो स्पष्ट नहीं है ।
३) दिगम्बर मत में भी अष्ट-महाप्रातिहार्यों की कल्पना है ही जिससे अशोकवृक्ष, सिंहासन, छत्र और चामर जैसी निकटवर्ती विभूति का वहाँ सद्भाव इष्ट नहीं था, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? सिंहासन, छत्रत्रय, चामरधर, भामंडलादि युक्त अनेक पुरानी दिगम्बर जिन प्रतिमाएं मौजूद हैं ।
४) इन चार विभूतियों को अभिषेक, पुष्पमाल, आंगीरचना, रक्षारोहण इत्यादि से तुलना करके, पिछली इन सब क्रियाओं को भी विभूति मनवा के, एक संग रख देना अप्रासंगिक है । वीतराग जिनेश्वर को दोनों सम्प्रदाय अचेल ही मानते हैं । कम से कम ईस्वी पंचम शती पर्यन्त तो उत्तर की निर्ग्रन्थ परम्परा में भी जिन की प्रतिमाएँ निर्वस्त्र ही बनती थीं, यह बात मथुरा एवं अहिच्छत्रादि से मिली साभिलेख कुषाण एवं गुप्तकालीन प्रतिमाओं से स्पष्ट है । तीर्थंकर जब समवसरण में देशना देते थे, वहाँ उनके शिर पर मुकुट, बाजुबन्ध समेत मुगलाइ जरियान जामा, गले में हारादि और कटिमेखला आदि भी आ जाते थे, ऐसा श्वेताम्बर आगमों में तो क्या, आगम की व्याख्याओं और पुराने कथा-साहित्य में भी कहीं नहीं है । यदि कोई विद्यमान (साक्षात्) तीर्थंकर पर 'अभिषेक करने जाय और उन पर अलंकार चढ़ाने की भक्तिपूर्वक भी चेष्टा करे तो उसको तो उपसर्ग-प्रवृत्ति ही माना जायेगा । किसीने, देवताओं ने भी, ऐसा किया हो ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है । प्रतिमा पर चाहे सो चढ़ाओ, वह कहाँ मना करती है ! इसको 'विभूतियाँ' मनवाना ठीक नहीं माना जा सकता । श्वेताम्बर परंपरा में जिनप्रतिमा के अलंकारों आदि से श्रृंगारित करने की बात तो चन्द्रगच्छ (बाद में राजगच्छ) के अभयदेवसूरि की सिद्धसेन दिवाकर विरचित सन्मतिप्रकरण की वृत्ति (प्राय: ईस्वी १०वीं शती उत्तरार्ध) के अन्तर्गत आती है, इसके पहले वहाँ कहीं भी उसका उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया । हाँ, प्रतिमा धोती सहित दिखाने की प्रथा लाट देश में, विशेषकर चैत्यवासी श्वेताम्बरों द्वारा, प्राय: पंचम शती अन्त से शुरू हो गई थी ऐसा आकोटा—प्राचीन अंकोटक से प्राप्त आदिनाथ की पीतल की बड़ी प्रतिमा से सिद्ध हो चुका है । जिन-बिम्बों की ऐसी प्रस्तुति के पीछे अपने सम्प्रदाय और बोटिक (उत्तर के अचेल-क्षपणक) सम्प्रदाय की जिन-प्रतिमाओं से पृथक् करने का आशय रहा हो ! लेकिन प्रतिमाओं को, विशेषकर खड्गासन प्रतिमाओं को, हार और कटिमेखला से विभूषित दिखाने की श्वेताम्बरीय प्रथा मध्यकाल से प्राचीन नहीं । यह सब देखकर भक्तामर में समीपवर्ती चार विभूतियों के ही वर्णन से श्वेताम्बरीय 'अंगपूजा' का पक्ष कैसे सबल हो जाता है, समझ में आना मुश्किल है । यों तो दिगम्बर सम्प्रदाय में भी सिंहासन, छत्र, भामण्डल, चामरादि विभूतियों से युक्त अनेक प्राचीन जिन-प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं; लेकिन वीतराग की अभिषेकादि अंगपूजा, वस्त्रालंकार की सजावट जैसी सरागभक्ति वहाँ सहज ही नहीं थी । वीतरागता और पद्मासनस्थ-समाधिस्थ मुद्रा से यह बात सुसंगत न होने से इष्ट नहीं मानी जा सकती
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