Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 68
________________ भक्तामर की पद्यसंख्या . के अन्दर दी गई स्थापत्य-विषयक परंपरा पूर्णतया द्राविडी परिपाटी की है । बहुत करके वे दक्षिण कर्णाटक-गंगवाडी-जैसे प्रदेश में हो गये होंगे । जो कुछ भी हो, यह पद्य इतने बाद के होने से मालवलाट-वागडादि प्रदेशों में स्थित अन्य उत्तर मध्यकालीन दिगम्बर भट्टारकों के ध्यान में नहीं आया था । इन्हीं में से किसी न किसी ने क्षतिपूर्त्यर्थ अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार चार-चार पद्यों को गढ़ दिया, जो आज करीब चार भिन्न-भिन्न गुच्छकों के रूप में पाए जाते हैं । इतिहासमार्तंड ज्योतिप्रसादजी का एक और कथन भी रहा कि “प्राप्त [श्वेताम्बर] प्रतियों की प्राचीनता भी कहीं भी छ:, सात सौ वर्ष से अधिक नहीं केवल ताड़पत्र पर होने से तो प्राचीन नहीं होती ।" बात तो ठीक है: परंतु ज्योतिप्रसाद जी को पश्चिम भारत में इस अनुलक्ष में रहे एकाध-दो तथ्यों के सम्बन्ध में मालूमात नहीं रही । राजस्थान और गुजरात में मुस्लिम शासन हो जाने के पश्चात्, विशेषकर ईस्वी १४वीं शती पूर्वार्ध के बाद, ताड़पत्र की जगह कागज़ का उपयोग होने लगा था । १५वीं शताब्दी में तो ताड़पत्र की पोथियाँ वहाँ कम होने लगती है । दूसरी ओर ताड़पत्र की पोथी कितनी पुरानी है उसका निर्णय ताड़पत्र का परिमाण, अक्षरों के मरोड़ (shapes) और पंक्तिओं के आयोजन का ढंग आदि तत्त्वों और मितियुक्त पोथियों से इन तत्त्वों की तुलना पर आधार रखता है । आखिर ६, ७ या ८ सौ साल पुरानी प्रति मिल जाती ही है तो इस तथ्य की अवगणना नहीं की जा सकती। इस सन्दर्भ में पं० धीरजलाल टोकरसी शाह की नोंध (note) हम यहाँ उपस्थित करेंगे : “दिगम्बर सम्प्रदाय के पास भक्तामर की इतनी प्राचीन कोई प्रति हो ऐसा मालूम नहीं हुआ है । इस सम्बन्ध में हमने अनेक दिगम्बर पंडितों के साथ पत्र-व्यवहार तथा परामर्श किया है, पर वे ४८ श्लोकों वाली कोई प्राचीन प्रति का प्रमाण नहीं दे पाये५ ।" विद्वशिरोमणि ज्योतिप्रसाद जी जिस “भक्तामर शतद्वयी' का उल्लेख कर रहे हैं, उसकी सम्प्रदाय एवं समय-स्थिति वस्तुतया क्या है, वह भी देख लेना उपयुक्त है । कापड़िया जी का कथन है कि “यह दिगम्बर पं० लालाराम शास्त्री की रचना है । इसके विलक्षण दिखाई देते नाम से श्री अगरचन्द नाहटा ने उल्लेख किया है ।"५६ इस आधार पर श्वेताम्बरों में ४८ पद्यों का प्रचार पूर्वकाल में था, कहने के लिए कोई बुनियाद नहीं बनती । एक बात यह भी तो है कि नाहटा जी ने जो कुछ कहा है, ऐतिहासिक दृष्टि से, न कि साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से । विद्वद्विश्ववंद्य ज्योतिप्रसाद जी शायद उनकी बात समझे नहीं हैं । इसके अलावा उन्होंने भक्तामरस्तोत्र को दोनों सम्प्रदायों के बीच जोड़ने वाली कड़ी इत्यादि बताया है, जिस विधान की यथार्थता निश्चयतया अप्रश्नीय है, इससे सबकी सम्मति ही हो सकती है। अब हम यहाँ इस विषय पर कटारिया जी द्वारा की गई कुछ विशेष टिप्पणियाँ सावलोकन पेश करेंगे, जिसे उन्होंने अपनी किताब के “परिशिष्ट' के अंतिम पृष्ठ पर अपनी “नोट" के रूप में पेश किया है, यथा “विष्वग्विभो सुमनस: किल वर्षयन्ति न्यग्-बन्धना: सुमनस: किमुताऽऽवहन्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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