Book Title: Mantungacharya aur unke Stotra
Author(s): M A Dhaky, Jitendra B Shah
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre

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Page 60
________________ भक्तामर की पद्यसंख्या मंदारकुंदकुवलयनीलोत्पल कमलमालती बकुलाद्यैः । समदभ्रमरपरीतैर्व्यामिश्रा पतति कुसुमवृष्टिर्नभसः ।। कटककटिसूत्रकुंडलकेयूरप्रभृतिभूषितांगौ स्वंगौ । यक्षौ कमलदलाक्षौ परिनिक्षिपत: सलीलचामरयुगलम् ।। आकस्मिकमिव युगपद्दिवसकरसहस्रमपगतव्यवधानम् । भामंडलमविभावितरात्रिं दिवभेदमतितरामाभाति ।। प्रबलपवनाभिघातप्रक्षुभितसमुद्रघोषमन्द्रध्वानम् । दंध्वन्यते सुवीणावंशादिसुवाद्यदुंदुभिस्तालसमम् ।। त्रिभुवनपतितालांछनमिंदुत्रयतुल्यमतुलमुक्ताजालम् । छत्रत्रयं च सुबृहद्वैडूर्यविक्लृप्त दंडमधिकमनोज्ञम् ।। ध्वनिरपि योजनमेकं प्रजायते श्रोत्रहदयहारिगभीरः । ससलिलजलधरपटलध्वनितमिव प्रविततान्तराशावलयम् ।। स्फुरितांशुरत्नदीधितिपरिविच्छरितामरेन्द्रचापच्छायम् । ध्रियते मृगेन्द्रवर्यैः स्फटिकशिलाघटित सिंहविष्टरमतुलम् ।। यस्येह चतुस्त्रिंशत्प्रवरगुणा प्रातिहार्यलक्ष्म्यश्चाष्टौ । तस्मै नमो भगवते त्रिभुवनपरमेश्वरार्हते गुणमहते ।। प्रातिहार्यों से सम्बद्ध पद्य इतने ही चमकीले हैं, जितने अतिशयों वाले । प्रातिहार्यों की वर्णना देखने से इनमें से कुछ में हमें अन्य दिगम्बर-मान्य विभावन से अनोखी एवं कुछ पहलुओं में तो उत्तर की परम्परा के समीप सी दिखाई देती है । जैसा कि अतिशयों में अग्रगामी धर्मचक्र का समावेश और प्रातिहार्यों में अशोकवृक्ष का रक्ताशोक रूपेण विवरण तथा यक्षों द्वारा गृहीत चामर-युगल इत्यादि से लगता है कि कर्ता शायद यापनीय रहे हों या यापनीय माध्यम से उत्तर की आगमिक परम्परा से परिचित रहे होंगे, जो कि अन्यथा उन्होंने ३४ अतिशयों में दिगम्बर रचनाओं के माफ़िक ही महाप्रातिहार्यों को समाविष्ट नहीं किया है। जिसकी रचनाकाल के सम्बन्ध में स्पष्ट सूचना हो, ऐसी प्राकमध्यकालीन रचनाओमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उद्योतनसूरि विरचित कुवलयमालाकहा (ईस्वी ७७८) सबसे प्राचीन है । वहाँ प्रातिहार्य इस प्रकार उल्लिखित है । (यह वर्णन भगवान महावीर के समवसरण के अनुलक्ष में किया गया है ) यथा एयस्स मज्झारे रइयं देवेण मणिमयं तुंगं । कंचण-सेलं व थिरं वरासणं भुवणनाहस्स ।। तत्तो पसरिय किरणं दित्तं भामंडलं मुणिवइस्स । __ वर दुंदुही य दीसइ वर सुर कर ताडिया सहसा ।। कोमल किसलय हारं पवणुव्वेल्लंत गोच्छ चचइयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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