Book Title: Mandan Granth Sangraha Part 01
Author(s): Mandan Mantri
Publisher: Laherchand Bhogilal Shah
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श्री अलङ्कारमण्डनम्. यमके वबौ सदृशौ यथा.. परिणेतुं गतः कृष्णो रुक्मिणी कन्यकां वरः । . रुरुचे भानुना तुल्यः स्वर्णवर्णनिभाम्बरः ॥ ५ ॥ डलो यथापायादुमेशः सुभगं दधानः सदा जटाबन्धभरं कडारम् । यस्तोत्रगीतिः क्रियते मनोज्ञा प्रसिद्धगन्धर्वगणैः कडारम् ॥ ६ ॥ श्लेषे यथा
न-बन्धनं गृहे यस्य स गृही सुखमेधते ।
तथैव स महायोगी सद्यस्वत्त्वमवाप्नुयात् ॥ ७ ॥ चित्रे यथा- सदा विडम्बना याताः सर्वे देव ! तवारताः ।
जडवनिर्मलाचारा जववस्वे कृताः सुराः ॥ ८॥ संसृत्याडम्बरहरं जडसन्त्यागभासुरम् ।
जडसंकासहद्धीरं जिनं भज विजं नृज ! ॥ ९ ॥ अयं छुरिकाबन्धः छत्रं वा ॥ अथ रीतित्रयमाह
माधुर्यदैस्तु वैदर्भी गौडीयोजःप्रकाशकः ।
पाश्चाली चापरैवर्णैरिति रीतित्रयं मतम् ॥ १४ ॥ वैदर्भी यथा
अनिलान्दोलिता मन्दं मन्द माकन्दमञ्जरी।
सुन्दरीव प्रियाश्लिष्टा चकम्पे मधुवर्षणी ॥ १० ॥ गौडीया यथागोपीपयोधरसमुच्चरदुश्वगन्ध
लुब्धान्धषट्पदभरोज्झितपङ्कजेषु । स्वाङ्गप्रभाद्विगुणनीलिमभासुरेषु
रेमे हरिः प्रमुदितो यमुनाजलेषु ॥ ११ ॥
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