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गौतम को लगा कि आनन्द मिथ्या भाषण कर रहा है। श्रावक (गृहस्थ ) को इतना उत्कृष्ट ज्ञान
-"आनन्द तुम्हें अपनी आलोचना करनी
नहीं हो सकता । अतः उसे सावधान करते हुए गौतम बोलेचाहिए ! श्रावक को इस सीमा तक अवधि ज्ञान हो ही नहीं सकता ।"
"भंते! फिर तो आपको अपनी आलोचना करनी चाहिए !" आनन्द ने अहंकार मुक्त हो कर कहा -"क्योंकि मैंने तो सत्य भाषण ही किया है ।"
आनन्द ने पुनः कहा "भन्ते ! कहां आप महाश्रमण और कहां मैं तुच्छ श्रावक ! परन्तु यदि मेरा कथन असत्य है तो आप श्रमण भगवान महावीर से इसका निर्णय कर लें ।" "ठीक है, आनन्द!" यह कह कर गौतम, आनन्द के पास से चले गए। वे सीधे भगवान् के पास पहुंचे। सर्वज्ञ महावीर तो जान ही रहे थे कि गौतम के मन में क्या चल रहा है। गौतम ने अपनी जिज्ञासा प्रभु के चरणों में व्यक्त की ।
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भगवान् ने समाधान देते हुए फरमाया - " गौतम ! आनन्द ने जो कहा है, वह सत्य है ।" गौतम ने पुनः पूछा - "भंते! क्या श्रावक को इतना ज्ञान हो सकता है ? भगवान् ने फरमाया - "हां, हो सकता है । " तब गौतम समझ गए कि असत्य दोष मुझसे ही हुआ है । वे दोबारा कोल्लाग सन्निवेश गए। वहां आनन्द से उन्होंने क्षमा याचना की ।
विनयमूर्ति आनन्द ने कहा प्रभो ! क्षमा कैसी, सत्य की जीत होना निश्चित ही है । बड़ा साधक तो वही है जो सत्य को स्वीकार करता है । आप मेरे लिये पहले भी वंदनीय थे, अब भी वन्दनीय हैं, क्योंकि आप सत्य के निष्कपट आराधक हैं । "
आनन्द की इस अहंकार शून्यता अथवा निरहंकारिता से गौतम गद्गद हो गए ।
आनन्द की देह क्षीण हो चुकी थी । शुभ भावों में रमण करते हुए आनन्द ने देह त्याग किया । वह प्रथम देवलोक में महान् ऋद्धि वाला देव बना । कालान्तर में वह भव पूर्ण करके मनुष्य बनेगा । फिर आत्म-साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर जन्म, जरा, मृत्यु से रहित हो जायेगा ।
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सारांश
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भगवान् महावीर ने धर्म आराधना दो प्रकार की कही है.
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साधु धर्म और गृहस्थ धर्म | आनन्द ने गृहस्थ धर्म पर चलने का व्रत लिया था ।
गृहपति आनन्द / 15