Book Title: Mahavir Ke Upasak
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Muni Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 36
________________ प्रायश्चित्त करें और पुनः स्थिर चित्त से पौषधव्रत में ध्यान लगाइए। सुरादेव ने अपनी भूल की आलोचना की। कालान्तर में उसने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं धारण की । अन्त में उसने अपना आयु समय निकट जाना तो संलेखना-संथारा किया और समधिमरण प्राप्त करके सौधर्म - कल्प में अरुणकान्त विमान में चार पल्योपम की आयु का देव बना। देव गति की लम्बी आयु को पूर्ण करके वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर महाव्रतों की साधना करके मोक्ष के शाश्वत पद को प्राप्त करेगा। सारांश २. भय की संभावना अंधकार में होती है, प्रकाश में भय हो ही नहीं सकता। बाह्य जगत का अंधकारप्रकाश का अभाव है और अन्तर्जगत का अन्धकार अज्ञान है । देव द्वारा सुरादेव के पुत्रों को मार देने की धमकी से सुरादेव विचलित नहीं हुआ, इसका कारण सुरादेव के भीतर ज्ञान का यह प्रकाश आलोकित था कि आयुष्य पूर्ण होने से पूर्व कोई किसी को नहीं मार सकता। । कुछ समय के लिए जैसे बादलों से सूर्य ढक जाता है, इसी तरह साधक के भीतर भी ज्ञान का प्रकाश कभी-कभी लुप्त हो जाता है। अत: देव ने जब सुरादेव के शरीर को रोगी कर देने की धमकी दी तो वह विचलित हो गया। अज्ञानवश वह यह भूल गया-'मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर तो जड़ है । मैं तो आत्मा हूँ और आत्मा को कोई रोगी नहीं बना सकता। सुरादेव की पत्नी धन्या उसकी पथप्रदर्शिका बनी और उसने आलोचना करके स्वयं को शुद्ध करने की प्रेरणा दी। भयमुक्त होने के लिए ज्ञानरूपी प्रकाश को अक्षुण्ण करने की आवश्यकता है और इसके लिए आवश्यक है, धर्म के सिद्धान्तों पर अटूट विश्वास और अबाधित धारणा। .. शरीर आत्म-साधना के लिए सहयोगी है, उसे स्वस्थ/नीरोग रखना उचित भी है, पर हम शरीर नहीं, आत्मा हैं । इस तरह देहातीत होने की प्रेरणा देती है सुरादेव की कथा! yuuIII शब्दार्थ गोकुल = गायों का समूह |चारित्र = आत्मशुद्धि के लिये किया जाने वाला उपक्रम |समाधिमरण = श्रावक सुरादेव/35

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