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भी पूरी तरह मेरी इच्छानुसार चलेगा। ऐसा सोचकर रेवती ने अपनी सभी सौतों को विष आदि के प्रयोग से यमलोक भेज दिया। सौतों को मारने का काम उसने इस चतुराई से किया कि उस पर किसी को भी सन्देह न हुआ। सभी ने कर्म का फल मानकर, सन्तोष कर लिया। महाशतक को भी अपनी पत्नी पर सन्देह नहीं हुआ।
__ रेवती की सौतें दहेज में अपने पीहर से जो धन लाई थी, वह सब रेवती ने प्राप्त कर लिया। पर्याप्त धन की स्वामिनी बनकर रेवती महाशतक के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।
महाशतक श्रावक था । अतः उसके जीवन में भोग की प्रधानता नहीं थी। उसका जीवन साधनामय था। वह सांसारिक बातों में विशेष रुचि नहीं लेता था। इस तरह साधना करते हुए महाशतक ने चौदह वर्ष बिता दिये।
आत्म-चिन्तन, निरन्तर साधना और तीर्थंकरों पर अटूट श्रद्धा के कारण एक दिन महाशतक का मन संसार से उचट गया। अतः उसने पूरा समय धर्मपालन में लगाने का निश्चय कर लिया। एक बार उसने एक बड़े प्रीतिभोज का आयोजन किया। उसमें राजगृह के व्यापारियों, इष्टमित्रों और सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया गया, फिर सब की उपस्थिति में महाशतक ने घर और व्यापार का पूरा भार अपने बड़े पुत्र को सौंप दिया और स्वयं पौषधशाला में रहने लगा। अब उसे संसार और संसार के कार्यों से कोई प्रयोजन नहीं रह गया था।
रेवती को पति की यह चर्या जरा भी अच्छी नहीं लगती थी। वह विचार करने लगी कि जैसे भी हो, मैं अपने पति को पौषधशाला से घर वापस ले आऊं।
एक दिन रेवती पौषधशाला में गयी और महाशतक से घर चलने का आग्रह करने लगी। अनेक प्रकार से उसने महाशतक को घर लाने के प्रयत्न किये परन्तु उसके सभी प्रयास विफल चले गये। अपनी इस विफलता पर रेवती को बहुत क्रोध आया। वह जलती-भुनती हुई घर लौट आयी।
__ महाशतक की साधना उत्तरोत्तर बढ़ने के साथ ही विशद्ध होने लगी थी। अन्त में उसने संलेखना व्रतले लिया। सामावरणीय कर्मकाक्षयोपशम हुआ और उसे अवधिज्ञान की उपलब्धि हुई, परिणामस्वरूप महाशतक पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में लवण समुद्र में एक हजार योजन तक देख सकता था। उत्तर दिशा में वह हेमवन्त पर्वत तक और नीचे रत्नप्रभा नरक तक पौषधशाला में बैठे-बैठे ही उसने अवधिज्ञान से पृथ्वी की चौरासी हजार साल की अगली स्थिति को भी जान लिया था।
रेवती दोबारा पौषधशाला पहुंची। इस बार भी वह महाशतक को आकर्षित नहीं कर सकी। ध्यानासन पर बैठे महाशतक को वह चलित करने के अनेक उपाय करने लगी। इन सब से महाशतक 58/महावीर के उपासक