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श्रावक के १२ व्रत ग्रहण करने के बाद मैं धीरे धीरे उपाश्रय (पौषधशाला) में पौषधव्रती होकर रहने लगूंगा । इस प्रक्रिया का अभ्यास बढ़ जाएगा तो फिर मैं श्रावक की ग्यारह प्रतिमा (प्रतिज्ञा के प्रकार) का अनुसरण करूंगा । वह दिन मेरे लिए परम धन्य होगा जब मैं ११ प्रतिमाओं की साधना करते हुए वीतराग पुरुषों की तरह अपने को संवर, निर्जरा और कर्मों की अबंध अवस्था से अपनी आत्मा को मुक्त करूंगा । आत्मा संसार में भटक ही इसलिए रहा है
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चौदह राजु तंग नभ । लोक पुरुष ठाण
तामें जीव अनादि तैं ।
भरमत है बिन ज्ञान ।
नंदिनीपिता भगवान के परम भक्त और निष्ठावान श्रावक थे । इसी प्रकार उनकी पत्नी अश्विनी भी भगवान की अनन्य उपासिका थी । वह भी यह कामना (मनोरथ) रखती थी कि वह दिन धन्य-धन्य होगा, जब मैं प्रभु के समवसरण मैं बैठकर उनकी अमृतवाणी का श्रवण करूंगी ।
नंदिनी महावीर के भक्तों में बहुत बड़े धनपति थे, यह उनकी विशेषता तो थी ही ; इसके साथ
मानवीय गुण, निष्काम जीवन, निरपेक्ष व असाम्प्रदायिक विचारों के कारण श्रावस्ती के समस्या ग्रस्त लोग उनके पास अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत समस्यायें लेकर आते और उनका निदान पाते । नंदिनी अपने निरपेक्ष व बुद्धिमत्ता पूर्ण उत्तरों के समाधान से उन्हें संतुष्ट करते थे ।
इसी प्रकार अश्विनी भी केवल धर्मसाधना के कारण ही समादरणीया नहीं थी । वह तत्कालीन नारी वर्ग में सम्माननीय भी थी । नारी को सदैव सफल नेतृत्व की आवश्यकता रहती है । अश्विनी अपने बुद्धि-कौशल से उनका सफल ने तृत्व करती थी । उन्हें जीवन के शाश्वत सत्यों से परिचित कराती । उनका सामाजिक, पारिवारिक व आध्यात्मिक मार्गदर्शन करती थी ।
नंदिनीपिता धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य और प्रभुतासम्पन्न श्रावक थे । १२ करोड़ स्वर्णमुद्रा के वे अधिपति थे । उनके चार-चार गोव्रज (गोकुल ) थे । नगर में सभी वर्ग के लोग उनका हार्दिक सम्मान करते थे । इतना सब कुछ होते हुए भी वे प्रभु भक्ति, ईमानदारी व सदाचार से विमुख नहीं थे । सादगी उनके जीवन की सुगन्ध थी तो सदाचार उनके आभूषण थे ।
एक दिन उनके मनःसिंचित आराध्य महावीर का श्रावस्ती में आगमन हुआ । श्रावस्ती के अन्य श्रावक नन्दिनीपिता / 63