________________
बात पर विश्वास न आया। उसने भगवान की बात को मिथ्या सिद्ध करने के लिए उस पौधे को ही उखाड़ दिया। लेकिन पौधा फिर भी उगा और उसमें प्रभु के कथनानुसार ही फल लगे।
संयोग की बात है उसी मार्ग से जाते हुए गोशालक ने उस पौधे को देखा । सचमुच उसमें वही सब देखा जो भगवान ने उसे बताया था। इस घटना से गोशालक भ्रम में पड़ गया।
गोशालक ने कहा -
"भगवन् ! जो कुछ होना है, वह होगा ही। इस अवश्यम्भावी होनहार को ही तो नियति कहते हैं। अतः आपका कर्म सिद्धान्त मिथ्या है. नियति ही सब कुछ है। जब नियति को बदला ही नहीं जा सकता, तो पुरुषार्थ, साधना और संयम का कोई अर्थ नहीं है।"
__ इस पर भगवान ने गोशालक को समझाया- "गोशालक! नियति के पीछे भी कर्म और पुरुषार्थ है। नियति बनने का भी कोई आधार होता है । गोशालक नियति भी हमारे कर्मों के अनुसार नियत होती है। तुम्हारा पुरुषार्थहीन नियतिवाद चिंतन मनुष्य को अकर्मण्य बना देगा। पुरुषार्थ व साधना से ही दूसरे भव में आत्मा को स्वस्थ शरीर, अनुकूल वातावरण और मनुष्य योनि मिलती है। पुरुषार्थ से ही मोक्ष मिलता है। अतः नियति न तो धर्म है, न साधना और न हमारा लक्ष्य है। नियति हमारी धर्मसाधना में बाधक नहीं बननी चाहिए।"
इस प्रकार महावीर ने गोशालक को कई तर्कों व प्रमाणों से समझाया, पर गोशालक ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। अंधेरे के कारण व्यक्ति को रस्सी में सर्प की भ्रान्ति या विपरीत निश्चय हो जाता है, ठीक वैसे ही गोशालक को भी अपने अज्ञान के कारण उसे कर्म सिद्धान्त के स्थान पर नियतिवाद की भ्रान्ति हो गई। इस भ्रान्ति या विपरीत निश्चय का कारण अज्ञान तो है ही, दूसरा कारण है दो वस्तुओं की समानता । जैसे रस्सी और सांप की आकृति मिलती - जुलती है । अतः अंधेरे में यदि रस्सी पड़ी हो तो सर्प की भ्रान्ति हो जाती है, कोई अन्य वस्तु पड़ी हो तो सर्प की भ्रान्ति नहीं होती। इसी प्रकार कर्मफल की नियति और होनहार नियति की निश्चितता में समानता होने के कारण गोशालक को यह भ्रम हो गया कि नियति ही सत्य है । साधना या पुरुषार्थ की बातें व्यर्थ है।
भगवान महावीर का गोशालक शिष्य था, परन्तु उसने उनका साथ छोड़ दिया और वह उनका कट्टर विरोधी बन गया। उसने एक नया सम्प्रदाय आजीवक नाम से चलाया। वह महावीर के धर्म की निन्दा और खण्डन करने लगा। कुछ लोग उसके समर्थक हो गए। वह चमत्कारों से भी लोगों को आकर्षित करने लगा।
तत्वदर्शी कुण्डकौलिक/43