Book Title: Mahavir Ke Upasak
Author(s): Subhadramuni
Publisher: Muni Mayaram Sambodhi Prakashan

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Page 30
________________ हुआ है, अतः तू इस दोष की आलोचना कर और फिर से पौषध व्रत में समता की उपासना कर। इसी में तेरा हित है। चुलनीपिता ने अपनी भूल का प्रायश्चित्त किया और फिर से पौषध व्रत में स्थिर हो गया। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं धारण की। इस विशिष्ट धर्म-उपासना से उसकी आत्मा उज्ज्वल हो गई, काया उज्ज्वल होती गई, अन्त में अनशन करके ,चुलनीपिता ने समाधि मरण प्राप्त किया। मर कर उसकी आत्मा ने देवभव को प्राप्त किया |चुलनीपिता मर कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में देव बना था । देवभव पूर्ण करके वह महा विदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और संयम का पालन कर हमेशा - हमेशा के लिए जन्म-मरण के बंधन से छूट कर मोक्ष प्राप्त करेगा। सारांश संसार मोह के तारों में बुना हुआ जाल है। जाल में संसार की अनन्त-अनन्त आत्मायें फंसी हैं, बंधी हैं। जब मोह के तार टूट जाते हैं तब जीव मुक्त होता है | यदि एक भी तार बचा रह गया, तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता। प्रचुलनीपिता ने पौषध साधना की। यह मोहातीत होने का उपाय है। उसने पुत्र, स्त्री, धन आदि पर होने वाले सभी प्रकार के मोह तो जीत लिये थे परन्तु मातृ मोह की श्रृंखला को वह न खोल पाया, इसलिये देव द्वारा परीक्षा लिये जाने पर उसका ध्यान भंग हो गया। प्र पुत्रों की रक्षा के लिये तत्पर न होना, चुलनीपिता की हृदय हीनता न होकर, उसकी इस आस्था का द्योतक था - आत्मा अजर-अमर है । कोई देव-दानव चाह कर भी किसी को मार नहीं सकता। अत: वह अचल रहा | माता के सन्दर्भ में उसे यह सत्य विस्मृत हो गया। यह चुलनीपिता के पौषध से उठने का कारण बना। यहां विशेष रूप से स्मरणीय है - मोह को जीतने की प्रेरणा स्वयं उसकी माता ने उसे दुबारा से दी थी। प्र मोह और प्रेम ये दो भिन्न तत्व है।मोह अन्धकार है प्रेम प्रकाश है। मोह आदमी के चिन्तन को संकुचित बनाता है और प्रेम उसे व्यापक विराट् बनाता है। प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति अपने तथा पराये की परिधि से ऊपर उठकर सभी के लिये बिना किसी भेदभाव के समान व्यवहार करता है। . मोह का विजेता ही मुक्ति को प्राप्त करता है। मातृभक्त चुलनीपिता/29

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