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दृष्टि
१३
६. अनुकूल निमित्त सफलता दिलाते ६. निमित्तों से मिलने वाली सफलता
स्थायी नहीं है। स्थायी सफलता
उपादान पर टिकी है। १०. भोग हमें पुष्ट करते हैं। १०.भोग हमारी प्राण शक्ति का हास
करते हैं। ११. दमन हानिकारक है।
११. यौन की स्वच्छन्दता विक्षेप का
कारण है। १२. सुविधाएं अभीष्ट हैं।
१२. सहिष्णुता आवश्यक है। १३. तप व्यर्थ है।
१३. तप शरीर के परमाणुओं को
चुम्बकीय क्षेत्र में बदल देता है जिससे शरीर पारदर्शी बन जाता है और चेतना बाहर झांक सकती
१४. आध्यात्मिक तत्त्व परोक्ष है। १४. हमारे अस्तित्व में मन, बुद्धि, प्राण
आदि अनेक अंश सूक्ष्म हैं किंतु
परोक्ष नहीं। १५. सृष्टि जड़ से बनी है। १५. सृष्टि का निर्माण प्राणियों के भीतर
उपर्युक्त विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रचलित अवधारणाओं के स्थान पर दी गई अवधारणाओं की एक सूची बानगी के रूप में दी गई है। इस सूची का संबंध व्यवहार सम्बन्धी प्रथम खण्ड से है। जहाँ तक परमार्थ का संबंध है, इस ग्रंथ के परमार्थ खण्ड में दिए गए सभी सूत्र कोई न कोई अभिनव अवधारणा लिए हुए हैं। अतः इन्हें यहाँ पृथक् रूप में नहीं दिया जा रहा है।
उपर्युक्त अवधारणाओं की सूची और परमार्थ खण्ड में दिये गये सूत्रों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य महाप्रज्ञ के चिन्तन का पटल कितना व्यापक है और उनके द्वारा प्रदत्त अवधारणाएँ कितनी मौलिक हैं। इसी व्यापक पटल पर उनकी अवधारणाओं की मौलिकता को उकेरने का एक प्रारम्भिक एवं विनम्र प्रयास आगे के पृष्ठों में हैं।
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