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संपादकीय
ईस्वी सन् १९६४, पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का दिल्ली में चातुर्मासिक प्रवास | उन दिनों जैन भारती नामक मासिक पत्र में ऋषभायण महाकाव्य का धारावाहिक प्रकाशन हो रहा था। ऋषभायण जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ के जीवन-दर्शन पर केन्द्रित महाकाव्य है। इस काव्य के सर्जन की मूल प्रेरणा आचार्य श्री तुलसी की यह आकांक्षा रही-'रामायण की तरह ऋषभायण का भी निर्माण होना चाहिए। उन्होंने इस कार्य की संपूर्ति का दायित्व आचार्य श्री महाप्रज्ञ को सौंप दिया। अपने गुरु के इंगित आकार के अनुरूप अपने कार्य की दिशा का निर्धारण आचार्य महाप्रज्ञ का जीवन-व्रत रहा। इसीलिए गुरुदेव तुलसी की चाह आचार्य महाप्रज्ञ की चाह बन जाती, गुरुदेव तुलसी का संकल्प आचार्य महाप्रज्ञ का संकल्प बन जाता। गुरु-शिष्य की इच्छा और संकल्प की इस एकात्मता में द्वैत में अद्वैत का साक्षात्कार होता था।
इस अद्वैत संकल्प की निष्पत्तियों का लेखा जोखा करना प्रस्तुत प्रसंग में न प्रासंगिक है और न अपेक्षित । ऋषभायण का सर्जन पूर्ण होने से पूर्व ही वह जैन भारती में क्रमशः प्रकाशित होने लगा। जैन भारती के अगस्त (सन् १६६४) अंक में ऋषभायण का जो अंश प्रकाश में आया, उसमें वसंतोत्सव का सजीव एवं मर्मस्पर्शी चित्रण था। डॉ० दयानन्द भार्गव के हाथों में जैन भारती का वह अंक पहुंचा। ऋषभायण में वसंतोत्सव का वर्णन पढ़कर डॉ० भार्गव भावविभोर हो गए। अपने मन में उभरे भावों को रोकना उनके लिए अशक्य बन गया। उस अंक मे छपे दस-बारह पद्यों पर उन्होंने एक समीक्षात्मक निबंध लिख डाला।
वह निबंध जैन भारती में प्रकाशित हुआ। आचार्य श्री तुलसी ने उस निबंध को पढ़कर न केवल प्रसन्नता व्यक्त की किन्तु साधु-साध्वियों की गोष्ठी
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