Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ १६ महाबन्ध यिक छदका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विकका उत्कृष्ट भीर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संस्थात हैं। तीयंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है तथा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है भीर अनुरकृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव अनन्त है। यह ओघप्ररूपणा जिन मार्गणाओं में सम्भव है उनमें ओघ के समान जाननेकी सूचना करके शेष मार्गणाओं में जहाँ जो विशेषता है, उसका अलगसे निर्देश किया है। ओघसे जघन्य परिमाणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि तीन आयु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात है। देवगतिह्निक, वैकिविकद्विक और तीर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। तथा शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं। आगे जिन मार्गणाओं में यह भोघप्ररूपणा बन जाती है, उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना करके शेष मार्गणाओंमें अपनी-अपनी बन्ध-प्रकृतियोंकी अपेक्षा अलग परिमाणका निर्देश किया है। क्षेत्रप्ररूपणा - मूल प्रकृतियोंकी यह प्ररूपणा भी त्रुटित है। ओघसे उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा निर्देश करते हुए बताया है कि तीन आयु, वैक्रियिकपट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण है। आगे जिन मार्गणाओं में यह भोपप्ररूपणा सम्भव है, उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना करके शेषमें अलग से विधान किया है। जघन्य क्षेत्रका विधान करते हुए बतलाया है कि ओघसे तीन आयु, वैकिविक छह, आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा शेष प्रकृतियोंका जघन्य और भजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण है । यह प्ररूपणा भी जिन मार्गणाओं में सम्भव है, उनमें ओधके समान जाननेकी सूचना करके शेषमें उसका भलगसे विधान किया है। स्पर्शनप्ररूपणा - मूल प्रकृतियोंकी यह प्ररूपणा भी नष्ट हो गई है। ओसे उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा निर्देश करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासुपा टिकासंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स, बादर, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार स्पर्शन कहा है तथा सब मार्गणाओं में भी अपनी-अपनी बन्ध योग्य प्रकृतियोंका आश्रय लेकर स्पर्शन कहा है। जघन्य स्पर्शनका निर्देश करते हुए जो प्रकृतियाँ एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीवोंके नहीं बँधती है उनका स्पर्शन अपने स्वामित्वके अनुसार अलग-अलग बतलाया है और शेष प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन सर्वलोक बतलाया है। केवल मनुष्यायुके स्पर्शनमें कुछ विशेषताका निर्देश किया है। यहाँ मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषताके अनुसार स्पर्शनका निर्देश किया है। नाना जीवोंकी अपेक्षा काल - मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट कालप्ररूपणा तो नष्ट हो गई | मात्र जघन्यकाळ प्ररूपणा उपलब्ध होती है। आठ मूलप्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध योग्य सामग्री के सद्भावमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव करते हैं, इसलिए माना जीवोंकी अपेक्षा इनके जघन्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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