Book Title: Mahabandho Part 6
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ १४ महाबन्ध जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। तथा इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं-अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । अनादि-अनन्त भङ्ग अभव्योंके होता है, क्योंकि उनके द्वितीयादि गुणस्थानोंकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे वे सर्वदा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते रहते हैं । अनादि सान्त भङ्ग जो केवल क्षपकश्रेणीपर आरोहण करके मोक्ष जाते हैं उनके सम्भव है, क्योंकि उनके अनादिसे अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने पर भी दसवें गुणस्थानमें उसका अन्त देखा जाता है । और सादि सान्त भङ्ग ऐसे जीवोंके होता है जिन्होंने उपशमश्रेणिपर आरोहण करके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध किया है। यहाँ इस सादि-सान्त भङ्गका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक समयके अन्तरसे सम्भव है, इसलिए तो यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्यकाल एक समय कहा है और उपशमश्रेणिके आरोहणका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, इसलिए यहाँ अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है। यह तो ज्ञानावरणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके कालका विचार है। इसके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धके कालका विचार इसप्रकार है-सूच्म निगोद अपर्याप्त जीव भवके प्रथम समयमें इसका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है, इसलिए इसके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्यकाल एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है, क्योंकि उक्त जीव प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्ध करके पर्यायके अन्त तक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता रहा और मरकर पुनः सूचम निगोद अपर्याप्त होकर भवके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्ध करने लगा, यह सम्भव है। और इस अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल दो प्रकारसे बतलाया है। प्रथम तो असंख्यात लोकप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह प्रतीत होता है कि कोई जीव इतने कालतक सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त पर्यायमें न जाकर निरन्तर अजघन्य प्रदेशबन्ध करता रहे यह सम्भव है। दूसरे यह काल जगणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है सो यह योगस्थानोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए । तात्पर्य यह है कि प्रथम उत्कृष्ट कालमें विवक्षित पर्यायके अन्तरकी मुख्यता है और दूसरे उत्कृष्ट कालमें विवक्षित योगस्थानके अन्तरकी मुख्यता है । इस प्रकार यहाँ ओघसे ज्ञानावरणके उत्कृष्ट, अनुकृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धके कालका विचार किया । अन्य मूल व उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धके कालका विचार ओघ और आदेशसे इसी प्रकार मूलके अनुसार कर लेना चाहिए। ___ अन्तरप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारमें ओघ और आदेशसे मूल व उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्टादिके अन्तरकालका विचार किया गया है। उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक समयके अन्तरसे भी सम्भव है और कुछ कम अर्धपुदगल परिवर्तन कालके अन्तरसे भी सम्भव है, इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा इसके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्यकाल एक समय होनेसे यहाँ इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशयन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और उपशान्तमोहमें अन्तमुहूर्त कालतक ज्ञानावरणका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहत कहा है। यहाँ ताइप्रतिके दो पत्र नष्ट हो गये है। इस कारण तिर्यञ्चगतिके अन्तरप्ररूपणाके अन्तिम भागसे लेकर अन्तरप्ररूपणाका बहुभाग, सन्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भजविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन और काल ये अनुयोगद्वार नहीं उपलब्ध होते । परन्तु उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबन्धके सन्निकर्ष अनुयोगद्वारके मध्यके कुछ त्रुटित भागको छोड़कर अन्तर काल, सन्निकर्ष और नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय आदिका प्रतिपादन करनेवाले ये अनुयोगद्वार यथावत् उपलब्ध होते हैं। इसलिए यहाँ उन अनुयोगद्वारोंकी दिशाका ज्ञान करानेके लिए उनके आधारसे परिचय दिया जाता है। सन्निकर्षप्ररूपणा-सन्निकर्षके दो भेद हैं स्वस्थान सन्निकर्ष और परस्थान सन्निकर्ष । स्वस्थान सन्निकर्ष में प्रत्येक कर्मको विवक्षित एक प्रकृतिके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली उसी कर्मकी अन्य प्रकृतियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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